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अनुप्रेक्षा : एक अनुशीलन
चिन्तन ध्यान का प्रारम्भिक रूप है। रुचि ध्यान की नियामक होने से चिन्तन की भी नियामक है। जो विषय हमारी रुचि का होता है, उस पर सहज ही ध्यान जाता है, उसका चिन्तन-मनन भी सहज ही चलता है। किसी विषय को जानने की इच्छा (जिज्ञासा) भी चिन्तन को प्रेरित करती है। जिज्ञासा जितनी प्रबल होगी; उसी के अनुपात में चिन्तन भी गम्भीर होगा। अत: चिन्तन शोध-खोज (रिसर्च) का आधार भी बनता है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि चिन्तन किसी विषय को समझने के लिए भी होता है और समझे हुए विषय का भी।
अनुप्रेक्षा चिन्तनस्वरूप होने से ज्ञानात्मक है, ध्यानात्मक नहीं।
अनुप्रेक्षा और ध्यान का अन्तर स्पष्ट करते हुए आचार्य अकलंकदेव लिखते हैं - ___ "स्यादेतदनुप्रेक्षाऽपि धर्मध्यानेऽन्तर्भवतीति प्रथगासामुपदेशोऽनर्थक इति; तन्न, किं कारणम्? ज्ञानप्रवृत्तिविकल्पत्वात्।अनित्यादिविषयचिन्तनं यदा ज्ञानं तदानुप्रेक्षाव्यपदेशो भवति, यदा तत्रैकाग्रचिंतानिरोघस्तदा धर्मध्यानम्।
अनुप्रेक्षाओं का धर्मध्यान में अन्तर्भाव हो जाने से उनका पृथक् कथन करना उचित नहीं है - यदि कोई ऐसा कहे तो उसका कथन ठीक नहीं है; क्योंकि अनुप्रेक्षाएँ ज्ञानप्रवृत्ति-विकल्परूप हैं । अनित्यादि विषयों का चिन्तन जब ज्ञानरूप होता है, तब वह अनुप्रेक्षा कहलाता है और जब अनित्यादि विषयों में चित्त एकाग्र होता है, तब धर्मध्यान नाम पाता है।" - वैराग्योत्पादक तत्त्वपरक चिन्तन ही अनुप्रेक्षा है। आवश्यकता मात्र चिन्तन की नहीं, वैराग्योत्पादक चिन्तन की है, तत्त्वपरक चिन्तन की है। ऐसा कौनसा संज्ञी (मनसहित) प्राणी है, जो चिन्तन से रहित हो? पर सामान्यजनों के चिन्तन
१. राजवार्तिक, अध्याय ९, सूत्र ३६, वार्तिक १३