Book Title: Barah Bhavana Ek Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 175
________________ बारहभावना : एक अनुशीलन १६७ संसार में 'धर्म' ऐसा नाम तो समस्त लोक कहता है; परन्तु धर्म शब्द का अर्थ तो ऐसा है कि जो नरक-तिर्यञ्चादि गति में परिभ्रमणरूप दुःख से आत्मा को छुड़ाकर उत्तम, आत्मिक, अविनाशी, अतीन्द्रिय मोक्षसुख में धरता है, वह धर्म है। सो ऐसा धर्म मोल नहीं आता है ; जो कि धन खर्च करके दान-सम्मानादिक द्वारा प्राप्त किया जावे। तथा किसी के द्वारा दिया नहीं जाता जो कि सेवाउपासना से राजी करके लिया जावे। तथा मन्दिर, पर्वत, जल, अग्नि, देवमूर्ति व तीर्थादिकों में नहीं रखा है; जो कि वहाँ जाकर लाया जावे। तथा उपवास, व्रत, कायक्लेशादि तप एवं शरीरादि कृश करने से भी नहीं मिलता है। तथा देवाधिदेव के मन्दिर में उपकरणदान, मण्डलपूजनादि से, गृह छोड़कर वन-शमशान में बसने से एवं परमेश्वर के नाम जपने से भी धर्म प्राप्त नहीं होता है। __धर्म तो आत्मा का स्वभाव है। पर में आत्मबुद्धि छोड़कर अपने ज्ञातादृष्टारूप स्वभाव का श्रद्धान, अनुभव तथा ज्ञायकस्वभाव में ही प्रवर्तनरूप आचरण ही धर्म है। जब उत्तमक्षमादि दशलक्षणरूप अपने आत्मा का परिणमन तथा रत्नत्रयरूप परिणति तथा जीवों की दयारूप आत्मा की परिणति होती है, तब आत्मा स्वयं ही धर्मरूप होगा; परद्रव्य-क्षेत्र कालादिक तो निमित्तमात्र हैं। जब यह आत्मा रागादिरूप परिणति छोड़कर वीतरागरूप होता है, तब मन्दिर, प्रतिमा, तीर्थ, दान, तप, जप-समस्त ही धर्मरूप हैं; और यदि अपना आत्मा उत्तमक्षमादि वीतरागरूप सम्यग्ज्ञानरूप नहीं परिणमे तो कहीं भी धर्म नहीं है। यहाँ शुभराग हो, वहाँ पुण्यबन्ध होता है। जहाँ अशुभराग-द्वेष-मोह हो, वहाँ पापबन्ध होता है। जहाँ शुद्ध श्रद्धान-ज्ञान-स्वरूपाचरणरूप धर्म है, वहाँ बन्ध का अभाव है। बन्ध का अभाव होने पर ही उत्तम सुख होता है; अतः वही धर्म है।" १. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक २ का भावार्थ

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