Book Title: Barah Bhavana Ek Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 177
________________ बारहभावना : एक अनुशीलन उक्त आत्मदर्शन-ज्ञान-ध्यानरूप आत्मोपासना ही साक्षात् मोक्ष का मार्ग है; अतः यही परमधर्म है । इस परमधर्म की प्राप्ति के लिए बार-बार किया गया चिन्तन-मनन ही धर्मभावना है। १६९ यहाँ एक प्रश्न संभव है कि जब 'बोधि' और 'धर्म' दोनों शब्दों का अर्थ रत्नत्रयरूप धर्म ही होता है; तब फिर बोधिदुर्लभ और धर्म - ऐसी दो भावनायें पृथक्-पृथक् क्यों रखी गईं ? - दोनों की विषयवस्तु में मूलभूत अन्तर क्या है ? यद्यपि यह सत्य है कि सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्ररूप रत्नत्रय को ही बोधि कहते हैं तथा वास्तविक धर्म भी यह रत्नत्रय ही है - इसप्रकार बोधि और धर्म एकार्थवाची ही हैं; तथापि बोधिदुर्लभभावना में बोधि की दुर्लभता अर्थात् रत्नत्रय की दुर्लभता का चिन्तन किया जाता है और धर्मभावना में धर्म अर्थात् रत्नत्रय के स्वरूप एवं महिमा का चिन्तन किया जाता है। बोधिदुर्लभ भावना में बोधि की दुर्लभता के साथ-साथ उन संयोगों की दुर्लभता का चिन्तन भी किया जाता है, जिन संयोगों के बिना बोधि की प्राप्ति संभव नहीं है अथवा जिन संयोगों में बोधि की प्राप्ति की संभावना रहती है। निराशा का वातावरण तोड़ने के लिए बोधि की सुलभता का स्वरूप भी स्पष्ट किया जाता है । बोधिदुर्लभ भावना में रत्नत्रयरूप धर्म की दुर्लभता और सुलभता का स्वरूप स्पष्ट किया जाता है और धर्मभावना में रत्नत्रयरूप धर्म का स्वरूप व महिमा बताई जाती है। बोधिदुर्लभभावना में धर्म की दुर्लभता बताकर उसे प्राप्त कर लेने की सशक्त प्रेरणा दी जाती है और धर्मभावना में धर्म का स्वरूप स्पष्ट कर उसे धारण करने का मार्ग प्रशस्त किया जाता है। प्रश्न : यदि ऐसी बात है तो फिर दोनों के नाम एकार्थवाची क्यों रखे गये ? उत्तर : दोनों के नाम एकार्थवाची कहाँ हैं? एकार्थवाची तो बोधि और धर्म शब्द हैं; पर भावनाओं के नाम बोधिभावना व धर्मभावना नहीं, बोधिदुर्लभभावना और धर्मभावना है। बोधिदुर्लभ शब्द का अर्थ धर्म नहीं, धर्म

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