Book Title: Barah Bhavana Ek Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 178
________________ १७० धर्मभावना : एक अनुशीलन की दुर्लभता है। हम इन भावनाओं को धर्मदुर्लभभावना और धर्मभावना भी कह सकते हैं। प्रश्न : यदि ऐसा है तो फिर ऐसा ही क्यों नहीं कहा? यदि ऐसा कहते तो कोई भ्रम भी उत्पन्न नहीं होता और दोनों का भाव भी स्पष्ट हो जाता। उत्तर : समझनेवाले को तो भाव अभी भी स्पष्ट ही है, नहीं समझनेवालों को तब भी स्पष्ट नहीं होता; फिर और भी अनेक प्रश्न खड़े हो जाते। यह संक्षिप्तप्रिय जगत धर्मदुर्लभ को भी धर्म शब्द से ही अभिहित करता - ऐसी स्थिति में धर्म और धर्मदुर्लभभावना का भेद करना भी संभव न रहता। बोधिदुर्लभभावना को भी अनेक स्थानों पर संक्षिप्तप्रियता और छन्दानुरोध से 'बोधि' शब्द से युगों से अभिहित किया जाता रहा है। आचार्य कुन्दकुन्द ने भी इसप्रकार के प्रयोग किये हैं। इस सन्दर्भ में निम्नांकित गाथा द्रष्टव्य है - "एवं जायदि णाणं हेयमुवादेय णिच्छये णत्थि। चिंतेजइ मुणि बोहिं संसारविरमणढे य॥ इसप्रकार अशुद्धनिश्चयनय से बोधि में हेयोपादेय व्यवस्था बनती है, पर शुद्धनिश्चयनय से बोधि में हेयोपादेयरूप विकल्प ही नहीं रहते हैं। संसार से विरक्ति के लिए मुनिजनों को इस बोधिभावना का चिन्तन करना चाहिए।" उक्त कथन में बोधिदुर्लभभावना के अर्थ में मात्र 'बोधि' शब्द का ही प्रयोग किया गया है। यही कारण है कि 'धर्म' और 'बोधि' शब्द एकार्थवाची होने पर भी इस ग्यारहवीं भावना का नाम धर्मदुर्लभभावना न रखकर बोधिदुर्लभभावना रखा गया है, जो कि सर्वथा उपयुक्त है। उत्तमक्षमादिरूप अथवा सम्यग्दर्शनादिरूप अहिंसक वीतराग-परिणति ही निज भगवान आत्मा की सच्ची आराधना है, मुक्तिरूपी साध्य को सिद्ध करनेवाली सम्यक् साधना है, अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द की जननी एवं संसार १. बारस अणुवेक्खा, गाथा ८६

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