Book Title: Barah Bhavana Ek Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 176
________________ १६८ योगीन्दुदेव योगसार में लिखते हैं धर्मभावना : एक अनुशीलन " जई - जर मरण-करालियउ तो जिय धम्म करेहि । धम्म- रसायणु पियहि तुहुँ जिय अजरामर होहि ॥ धम्मु ण पढियइँ होहि धम्मु ण पोत्था - पिच्छियइँ । धम्मु ण मढिय-पएस धम्मु ण मत्था - लचियइँ ॥ राय - रोस बे परिहरिवि जो अप्पाणि वसे । सो धम्मु वि जिण - उत्तियउ जो पंचम गइ इ ॥ हे आत्मन ! यदि तू जन्म-मरण से भयभीत है तो धर्म कर, धर्म रसायन का पान कर; जिससे तू अजर-अमर हो सके । पर ध्यान रखना, धर्म पढ़ने मात्र से नहीं होता, पुस्तक और पिच्छी रखने से धर्म नहीं होता तथा किसी मठ में रहने से या केशलोंच कर लेने मात्र से भी धर्म नहीं होता। जो व्यक्ति राग-द्वेष को छोड़कर निज आत्मा में वास करता है, उसे ही जिनेन्द्र भगवान ने धर्म कहा है और वह धर्म ही पंचमगति को प्राप्त कराता है।" उक्त सम्पूर्ण कथन का एकमात्र तात्पर्य यह है कि निज भगवान आत्मा की आराधना ही वास्तविक धर्म है; क्योंकि निज भगवान आत्मा की आराधना का नाम ही सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र है। पर और पर्याय से भिन्न निज आत्मा का अवलोकन ही सम्यग्दर्शन है, उसका परिज्ञान ही सम्यग्ज्ञान एवं उसमें ही लीनता - रमणता सम्यक्चारित्र है। इसे ही आत्मोपासना भी कहते हैं। इसी दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप आत्मोपासना की प्रेरणा देते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं - " एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा सिद्धिमभीप्सुभिः । साध्यसाधक भावेन द्विधैकः समुपास्यताम् ॥ चाहे साध्यभाव से करे, चाहे साधकभाव से; पर मोक्षार्थियों को ज्ञान के घनपिण्ड भगवान आत्म की ही उपासना करना चाहिए; क्योंकि उपासना के योग्य एक निज भगवान आत्मा ही है ।" १. समयसार, कलश १५ २. वही

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