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बारहभावना : एक अनुशीलन
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सागर के पार उतारनेवाली भव्यभावना है। यह अहिंसक वीतराग-परिणति ही वास्तविक धर्म है, इसके ही प्रकटरूप उत्तमक्षमादि दशधर्म हैं।
जिस आत्मस्वभाव के आश्रय से उक्त अहिंसक वीतराग-परिणति उत्पन्न होती है; 'वत्थु सहावो धम्मो - वस्तु का स्वभाव ही धर्म है' - इस कथन के अनुसार वह आत्मस्वभाव भी धर्म है और उस आत्मस्वभाव के आश्रय से उत्पन्न होनेवाली सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप वीतराग-परिणति भी धर्म है। इसी वीतराग-परिणति का नाम ही भगवती अहिंसा है, जिसे परमधर्म कहा जाता है। जैसा कि कसायपाहुड़ के निम्नांकित कथन से स्पष्ट है - "रागादीणमणुप्पा अहिंसगत्तं त्ति देसिदं समये।
तेसिं चे उत्पत्ती हिंसेत्ति जिणेहि णिहिट्ठा॥ आत्मा में रागादिभावों का उत्पन्न होना ही हिंसा है और रागादिभावों की उत्पत्ति नहीं होना ही अहिंसा है - ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है।
आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय में भी इसीप्रकार का भाव व्यक्त किया है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि सम्यग्यदर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय धर्म, उत्तमक्षमादि दशलक्षण धर्म; निज भगवान आत्मा की उपासना, आराधना, भावना एवं साधना तथा भगवती अहिंसा - ये सभी एकमात्र वीतरागपरिणतिरूप धर्म के ही रूपान्तर हैं, नामान्तर हैं; अतः इन सबकी भावना ही धर्मभावना है। इन सबका वैराग्योत्पादक आत्मोन्मुखी चिन्तन ही धर्मभावना का मूल भाव्य है।
वीतराग-परिणतिरूप शुद्ध परिणामों में सभी धर्म समाहित हो जाते हैं। जैसा कि परमात्मप्रकाश की टीका में कहा गया है -
१. जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भाग १, पृष्ट २२५ २. अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति।
तेषामेवोत्पत्तिर्हिसेति जिनागमस्य संक्षेप॥ ४४ ।।