Book Title: Barah Bhavana Ek Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 173
________________ बारहभावना : एक अनुशीलन १६५ रहीम कवि कहते हैं कि वे व्यक्ति मानो मर ही गये हैं, जो दूसरों के घर माँगने जाते हैं; क्योंकि जिनका स्वाभिमान मर गया, वे मेरे हुए के समान ही हैं; किन्तु स्वाभिमान खोकर माँगने पर भी जिनके मुख से इन्कार निकलता है, वे उनसे भी पहले मर चुके हैं - यह समझना चाहिए; क्योंकि समर्थ होने पर भी देने से इन्कार करना माँगने से भी बुरा है।" ___ अतः बिना माँगे अतीन्द्रियानन्द देनेवाले धर्म की तुलना में माँगने पर भोगसामग्री देनेवाले कल्पवृक्ष तुच्छ ही हैं। धर्मभावना के सन्दर्भ में पावन प्रेरणा के साथ अतिसंक्षेप में धर्म का स्वरूप स्पष्ट करनेवाले कतिपय कथन इसप्रकार हैं - "जो भाव मोह तैं न्यारे, दृग-ज्ञान-व्रतादिक सारे। सो धर्म जबै जिय धार, तब ही सुख अचल निहारे।। दर्शनमोह और चारित्रमोह से भिन्न जो आत्मा के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र भाव हैं, वे ही धर्म हैं। जब यह जीव इन धर्मों को धारण करता है, तभी अचलसुख को प्राप्त करता है। दर्शनज्ञानमय चेतना, आतमधर्म बखानि। दया-क्षमादिक रतनत्रय, यामें गर्भित जानि॥ दर्शन-ज्ञानमय ज्ञानचेतना ही आतमा का धर्म है; दया, क्षमा आदि तथा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय भी इसी में गर्भित जानने चाहिए।" निश्चय-व्यवहार की संधिपूर्वक भी धर्मभावना का स्वरूप स्पष्ट किया गया है - "जप तप संयम शील पुनि, त्याग धर्म व्यवहार। 'दीप' रमण चिद्रूप निज, निश्चय वृष सुखकार।। स्वयं को सम्बोधित करते हुए पंडित दीपचन्दजी कहते हैं कि हे आत्मन्! जप, तप, शील, संयम और त्याग आदि तो व्यवहारधर्म हैं; सच्चा सुख देनेवाला निश्चयधर्म तो चैतन्यस्वरूप निजपरमात्मा में रमणता ही है।" १. पण्डित दौलतरामजी : छहढाला, पंचम ढाल, छन्द १४ २. पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा कृत बारह भावना ३. पण्डित दीपचन्दजी कृत बारह भावना

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