Book Title: Barah Bhavana Ek Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 171
________________ बारहभावना : एक अनुशीलन १६३ घेरनेवाली धर्मभावना ही है। १८५ गाथाओं में फैली इस भावना में श्रावकधर्म और मुनिधर्म का सांगोपांग विवेचन किया गया है। जिसमें सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र के विस्तृत विवेचन के उद्देश्य से देव-शास्त्र-गुरु, सम्यग्दर्शन के आठ अंग, बारह व्रत, ग्यारह प्रतिमाएँ, दश धर्म, बारह तप एवं चार ध्यान आदि सभी विषय समा गये हैं। इसी धर्मभावना के प्रकरण में प्रसंगानुसार वे क्रान्तिकारी महत्त्वपूर्ण गाथाएँ भी आई हैं, जिनमें सहज ही क्रमबद्धपर्याय का महान सिद्धान्त प्रतिफलित हुआ है, जो इस युग का सर्वाधिक चर्चित विषय है। वे गाथाएँ मूलतः इसप्रकार हैं - "जं जस्स जम्मि देसे जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि। णादं जिणेण णियदं जम्मं वा अहव मरणं वा॥ तं तस्स तम्मि देसे तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि। को सक्कदि वारे, इंदो वा तह जिणिंदो वा॥ एवं जो णिच्छयदो जाणदि दव्वाणि सव्वपज्जाए। सो सहिट्ठी सुद्धो जो संकदि सो हु कुद्दिट्ठी॥ जिस जीव के, जिस देश में, जिस काल में, जिस विधान से, जो जन्म .. अथवा मरण जिनदेव ने नियतरूप से जाना है; उस जीव के, उसी देश में, उसी काल में, उसी विधान से, वह अवश्य होता है। उसे इन्द्र अथवा जिनेन्द्र कौन टालने में समर्थ है? अर्थात् उसे कोई नहीं टाल सकता है। इसप्रकार निश्चय से जो द्रव्यों को और उनकी समस्त पर्यायों को जानता है, वह सम्यग्दृष्टि है; और जो इसमें शंका करता है, वह मिथ्यादृष्टि है।" जहाँ एक ओर धर्मभावना को इतना विस्तार दिया गया है तो दूसरी ओर अनेक कवियों ने इसे एक-एक छन्द में भी समेट लिया है, जिनमें अधिकांशतः तो धर्म की महिमा बताकर धर्म धारण करने की पावन प्रेरणा ही दी गई है; अनेकों १. क्रमबद्धपर्याय का सम्यक् स्वरूप विस्तार से जानने के लिए लेखक की अन्य कृति 'क्रमबद्धपर्याय' का अध्ययन करें। २. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा ३२१ से ३२३

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