Book Title: Barah Bhavana Ek Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 163
________________ बारहभावना : एक अनुशीलन १५५ क्रमबद्धपरिणमन के कारण इस अवस्था को प्राप्त हो गया। पर अब तो सर्वप्रकार अनुकूलता है, विचारशक्ति सहित हैं; अतः सर्वउद्यम से महादुर्लभ बोधि की उपलब्धि में संलग्न हो जाना ही श्रेयस्कर है। निरंतर किया गया इसप्रकार का आत्मोन्मुखी पुरुषार्थप्रेरक चिन्तन ही बोधिदुर्लभभावना है। बोधिदुर्लभभावना को उक्त चिन्तन-प्रक्रिया के अतिरिक्त निश्चयव्यवहार की संधिपूर्वक एक और प्रक्रिया भी पाई जाती है, जिसमें चिन्तन का प्रकार ऐसा होता है कि बोधि तो अपना स्वभाव है, वह दुर्लभ कैसे हो सकता है? जब अपना स्वभावभाव ही दुर्लभ होगा तो फिर सहजसुलभ क्या होगा? हमने अपने अज्ञान एवं अरुचि से उसे दुर्लभ बना रखा है, वस्तुतः तो वह सहजसुलभ ही है। ___ इस संदर्भ में पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा कृत बारह भावना का निम्नांकित छन्द द्रष्टव्य है - "बोधि आपका भाव है, निश्चय दुर्लभ नाहिं। भव में प्रापति कठिन है, यह व्यवहार कहाहि॥ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप बोधि तो आत्मा का स्वभाव है; अतः निश्चय से दुर्लभ नहीं है। संसार में उसकी प्राप्ति कठिन है - यह तो मात्र व्यवहार से कहा जाता है।" इसीप्रकार का भाव भैया भगवतीदासजी ने व्यक्त किया है - "दुर्लभ परद्रव्यनि को भाव, सो तोहि दुर्लभ है सुनि राव। जो है तेरो ज्ञान अनन्त, सो नहिं दुर्लभ सुनो महंत॥ परपदार्थों की प्रवृत्ति अपने आधीन न होने से परद्रव्यों के भाव ही वस्तुतः दुर्लभ हैं। हे आत्मन् ! तेरा जो अनन्तज्ञानरूप भाव है, वह किसी भी रूप में दुर्लभ नहीं है।" १. भैया भगवतीदासजी कृत बारह भावना

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