Book Title: Barah Bhavana Ek Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 161
________________ बारहभावना : एक अनुशीलन १५३ उलझकर सम्पूर्ण शक्ति से अपने को जानो, पहिचानो और अपने में ही जम जावो, रम जावो - सुखी होने का एक मात्र यही उपाय है। बोधि की दुर्लभता का गहराई से अनुभव हो - इसके लिए निगोद से लेकर उत्तरोत्तर दुर्लभता का बड़े ही मार्मिक ढंग से चिन्तन किया जाता रहा है। कविवर मंगतराय कृत बारह भावना में इसे इसप्रकार व्यक्त किया गया है - "दुर्लभ है निगोद से थावर अरु त्रस गति पानी। नरकाया को सुरपति तरसे सो दुर्लभ प्राणी॥ उत्तम देश सुसंगति दुर्लभ श्रावक कुल पाना। दुर्लभ सम्यक् दुर्लभ संयम पंचम गुणठाना॥ दुर्लभ रत्नत्रय आराधन दीक्षा का धरना। दुर्लभ मुनिवर को व्रत पालन शुद्धभाव करना। दुर्लभ तैं दुर्लभ है चेतन बोधिज्ञान पावै। पाकर केवलज्ञान नहीं फिर इस भव में आवै॥" आचार्य पूज्यपाद बोधि की इस दुर्लभता को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "एक निगोद शरीर में सिद्धों से अनन्तगुणे जीव हैं। इस प्रकार स्थावर जीवों से यह सम्पूर्ण लोक भरा हुआ है। जिसप्रकार बालू के समुद्र में गिरी हुई वज्रसिकता की कणिका का मिलना दुर्लभ है; उसीप्रकार स्थावर जीवों से भरे हुए इस भवसागर में त्रसपर्याय का मिलना अत्यन्त दुर्लभ है। ___ सपर्याय में विकलत्रयों (द्विन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रियों) की बहुलता है। जिसप्रकार गुणों के समूह में कृतज्ञता का मिलना अतिदुर्लभ है; उसीप्रकार त्रसपर्याय में पंचेन्द्रिय पर्याय का प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है। पंचेन्द्रिय पर्याय में भी पशु, मृग, पक्षी और सर्पादि तिर्यञ्चों की ही बहुलता है। अत: जिसप्रकार चौराहे पर पड़ी हुई रत्नराशि का प्राप्त होना कठिन है; उसीप्रकार मनुष्यपर्याय का प्राप्त होना अति कठिन है। यदि एक बार मनुष्यपर्याय मिल भी गई तो फिर उसका दुबारा मिलना तो इतना कठिन है कि जितना जले हुए वृक्ष के परमाणुओं का पुनः उस वृक्ष

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