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बारह भावना : एक अनुशीलन
किन्तु जब यह जीव बोधिलाभ को अत्यन्त कठिन मानकर अनुत्साहित होकर पुरुषार्थहीन होने लगता है, तो उसके उत्साह को जाग्रत रखने के लिए उसकी सुलभता का ज्ञान भी कराया जाता है ।
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अतः बोधि की दुर्लभता और सुलभता - दोनों ही एक ही उद्देश्य की पूरक हैं और काल्पनिक भी नहीं, अपितु सत्य के आधार पर प्रतिष्ठित हैं। बोधिलाभ स्वाधीन होने से सुलभ भी है और अनादिकालीन अनुपलब्धि एवं अनभ्यास के कारण दुर्लभ भी ।
प्रश्न : बोधिदुर्लभ नाम से तो यही प्रतीत होता है कि जिनागम को बोधि की दुर्लभता बताना ही इष्ट है ?
उत्तर : ऊपर से देखने पर तो ऐसा ही प्रतीत होगा और अधिकतर चिन्तन भी इसीप्रकार का उपलब्ध होता है, पर गहराई से विचार करें तो बोधि की दुर्लभता के सम्यक् स्वरूप के चिन्तन के साथ-साथ बोधि की सुलभता का चिन्तन भी जिनागम को अभीष्ट है। बोधि की दुर्लभता और सुलभता का सम्यक् स्वरूप यह है कि जबतक सैनी पंचेन्द्रिय दशा की उपलब्धि न हो, तबतक तो बोधिलाभ महादुर्लभ है ही, किन्तु मनुष्यपर्याय में भी अनभ्यास के कारण दुर्लभ ही है; तथापि जो ठान ले, उसके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं, सब सुलभ है; पुरुषार्थी के लिए क्या सुलभ और क्या दुर्लभ ? सब सुलभ ही है; क्योंकि प्रत्येक भावना के चिन्तन का स्वरूप पुरुषार्थ प्रेरक ही होता है।
बोधिदुर्लभ भावना के चिन्तन का वास्तविक स्वरूप यही है कि जबतक हम जाग्रत नहीं हुए, तबतक महादुर्लभ और आत्मोन्मुखी पुरुषार्थ के लिए कमर कसकर सन्नद्ध लोगों के लिए महासुलभ है।
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यदि हम 'बोधिदुर्लभ' नाम से मात्र दुर्लभता ही लेंगे तो फिर 'आस्रव' नाम से मात्र आस्रवों के विचार तक और अशुचि नाम से मात्र अशुचिता की बात तक ही सीमित रहना होगा; जबकि आस्रवभावना में आस्रवों के स्वरूप की अपेक्षा उनकी हेयता पर एवं अशुचिभावना में देह की अशुचिता की अपेक्षा उससे विरक्ति पर अधिक बल दिया जाता है; आत्मा की उपादेयता और परमपवित्रता पर भी भरपूर चिन्तन किया जाता है ।