________________
बारहभावना : एक अनुशीलन
१५९
है; क्योंकि बोधि की दुर्लभता के चिन्तन का यही वास्तविक स्वरूप है। इसमें उक्त चारों बिन्दुओं का गंभीर चिन्तन समाहित हो जाता है।
यह चित्त अनादिकाल से संयोगों में ही अनुरक्त है; अतः सर्वप्रथम अनेकों बार प्राप्त कर लेने के पक्ष को उजागर कर, उन्हें सुलभ बताकर, उच्छिष्ट बताकर; उनसे विरक्ति उत्पन्न की जाती है और आजतक प्राप्त न होने के आधार पर बोधिलाभ को दुर्लभ बताकर उसके प्रति अनुरक्ति उत्पन्न की जाती है। तत्पश्चात् बोधिलाभ की अतिदुर्लभता का भान कराने के लिए उन संयोगों को भी दुर्लभ बताया जाता है, जिन संयोगों में बोधिलाभ की प्राप्ति संभव होती है; किन्तु जब चित्त बोधिलाभ की दुर्लभता से आक्रान्त होकर शिथिल होने लगता है तो स्वाधीनता के आधार पर बोधिलाभ की सुलभता बताकर उसे प्राप्त कर लेने के लिए पुरुषार्थ को जाग्रत किया जाता है, उत्साह को बढ़ाया जाता है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि बोधिदुर्लभभावना में चाहे संयोगों की सुलभता बताई जा रही हो, चाहे दुर्लभता; चाहे बोधिलाभ की सुलभता बताई जा रही हो, चाहे दुर्लभता; पर उसकी चिन्तन-प्रक्रिया की दिशा रत्नत्रयधर्म की उत्पत्ति, वृद्धि एवं पूर्णता को बल प्रदान करने की ओर ही रहती है। ___ इस बोधिदुर्लभभावना की महिमा अपार है, अपरम्पार है। इसके गीत जितने भी गाये जायें, कम हैं; क्योंकि यह आत्महित की ओर अग्रसर करनेवाली परमपावन भावना है। पुरुषार्थ को जागृत करनेवाली यह बोधिदुर्लभभावना रत्नत्रयरूप धर्म धारण करने की पावन प्रेरणा है; उपलब्ध धर्मपरिणति को नित्य वृद्धिंगत करनेवाली, पूर्णता की ओर ले जानेवाली समर्थ साधना है; शुभाशुभभावविध्वंसनी आनन्दजननी यह भावना ध्रुवधाम निज परमात्मा की परमाराधना है।
- ऐसी इस बोधिदुर्लभभावना का स्वरूप भली-भाँति समझकर सभी आत्मार्थीजन दुर्लभ बोधि को अपने प्रबल पुरुषार्थ से सहज सुलभ बनाकर इसी भव में उपलब्ध कर लें - इसी पावन भावना और प्रेरणा के साथ विराम लेता हूँ।