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धर्मभावना निज आतमा को जानना पहिचानना ही धर्म है। निज आतमा की साधना आराधना ही धर्म है। शुद्धात्मा की साधना आराधना का मर्म है। निज आतमा की ओर बढ़ती भावना ही धर्म है ॥१॥ अपनी आत्मा को जानना, पहिचानना ही धर्म है। इसीप्रकार अपनी आत्मा की साधना, आराधनां भी धर्म है। आराधना का मर्म निज आत्मा की साधना ही है। निज आत्मा की ओर बढ़ती हुई भावना ही धर्मभावना है।
कामधेनु कल्पतरु संकटहरण बस नाम के। रतन चिन्तामणी भी हैं चाह बिन किस काम के॥ भोगसामग्री मिले अनिवार्य है पर याचना।
है व्यर्थ ही इन कल्पतरु चिन्तामणी की चाहना॥२॥ कामधेनु और कल्पवृक्ष नाममात्र के ही संकटहरण हैं। जिसे कोई चाह नहीं है, उसे चिन्तामणी रत्न भी किस काम के हैं? यद्यपि इनसे भोगसामग्री उपलब्ध हो जाती है; पर बिना माँगे नहीं, याचना करना अनिवार्य है और माँगने को तो मरने से भी बुरा कहा गया है। अत: इनकी चाह करना व्यर्थ ही है।