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बारहभावना : एक अनुशीलन
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है, महादुर्लभ है और इस बोधि की दुर्लभता का विचार, चिन्तन, बार-बार चिन्तन ही बोधिदुर्लभभावना है।
इसी दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप बोधि का अत्यन्त आदर करने का आदेश देते हुए स्वामी कार्तिकेय लिखते हैं -
"इय सव्व दुलह-दुलहं दंसणणाणं तहाचरित्तं च।
मुणिऊण य संसारे महायरं कुणह तिण्हंपि॥ इन सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को संसार की समस्त दुर्लभ वस्तुओं से भी दुर्लभ जानकर इनका अत्यन्त आदर करो।" __ बोधि और समाधि का अन्तर वृहद्रव्यसंग्रह की संस्कृत टीका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
"सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामप्राप्तप्रापणं बोधिस्तेषामेव निर्विनेन भवान्तरप्रापणं समाधिरिति।
अप्राप्त सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का प्राप्त होना बोधि है और उन्हीं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को निर्विघ्न अन्य भव में साथ ले जाना समाधि है।"
यद्यपि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र - इन तीनों को या तीनों की एकता को बोधि कहते हैं; तथापि बोधिदुर्लभभावना की चर्चा करते हुए अनेक स्थानों पर अकेले 'सम्यग्ज्ञान' या 'पहिचान' शब्द का प्रयोग भी किया गया है; परन्तु आशय सर्वत्र एक ही है, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से ही है; क्योंकि इन तीनों की उत्पत्ति एक साथ ही होती है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वयं 'सण्णाणं' शब्द का प्रयोग करते हैं -
"उप्पज्जदि सण्णाणं जेण उवायेण तस्सुवायस्स।
चिन्ता हवेई बोही अच्चन्तं दुल्लहं. होदि॥ जिस उपाय से सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति हो, उस उपाय का अत्यन्त चिन्तन अर्थात् बार-बार चिन्तन-मनन ही बोधिदुर्लभभावना है।" १. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा ३०१ २. वृहदद्रव्यसंग्रह गाथा ३६ को टीका, पृष्ठ १६४ ३. बारस अणुवेक्खा, गाथा ८३