________________
११६
संवरभावना : एक अनुशीलन
"निज स्वरूप में लीनता, निश्चयसंवर जानि ।
समिति गुप्ति संजम धरम, धरै पाप की हानि ॥ निश्चयसंवरभावना तो निजस्वरूप में लीनता ही है। व्यवहार से पापनिरोधक गुप्ति, समिति, धर्म, संयमादि को भी संवरभावना कहते हैं।
ज्ञान-विराग विचार के, गोपै मन-वच-काय ।
थिर है अपने आप में, सो संवर सुखदाय ॥ ज्ञान और वैराग्यपरक चिन्तनपूर्वक अपने उपयोग को मन-वचन-काय से हटाकर जो अपने आप में स्थिर होते हैं, उनके संवर या संवरंभावना होती है।
गुप्ति समिति वर धर्म धर, अनुप्रेक्षा चित चेत । परिषहजय चारित्र लहि, यह छह संवर हेत ॥ है संवर सुखमय महा, जहँ 'जग' अघ नहिं लेश ।
गुप्ति समिति धर्मादि तैं, करें न करम प्रवेश ॥ श्रेष्ठ गुप्ति, समिति और धर्म के धारण करने से, अनुप्रेक्षाओं के चिन्तवन से, परिषहजय और चारित्र से संवर होता है अर्थात् ये छह संवर के कारण हैं।
यह संवर महासुखमय है। गुप्ति, समिति व धर्मादिमय होने से इसमें कर्म का प्रवेश एवं पाप लेश भी नहीं है।"
उक्त छन्दों में संवरभावना का जो चिन्तन किया गया है; उसमें चाहे नाममात्र को ही सही, पर संवर के हेतुओं को भी गिनाया गया है तथा संवरभावना के स्वरूप को भी निश्चय-व्यवहार की संधिपूर्वक स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। संवर और संवरभावना में भेद न करके संवरभावना को भी 'संवर' शब्द से ही अभिहित किया गया है। 'निश्चय संवर जानि' और 'सो संवर सुखदाय' पदों से यह बात अत्यन्त स्पष्ट है।
१. पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा कृत बारह भावना २. पण्डित दीपचन्दजी कृत बारह भावना ३. बाबू जगमोहनदासजी कृत बारह भावना