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बारहभावना : एक अनुशीलन
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जिसप्रकार वृक्ष की उत्पत्ति बिना उसकी वृद्धि और पूर्णता संभव नहीं है; उसीप्रकार आत्मशुद्धि की उत्पत्ति बिना उसकी वृद्धि और पूर्णता संभव नहीं है। यही कारण है कि निर्जरा संवरपूर्वक ही होती है।।
जिसप्रकार संवरभावना में संवर के कारणों के विस्तार में जाना अभीष्ट नहीं होता, अपितु उनकी उपादेयता का विचार, भेदविज्ञान और आत्मानुभूति की प्रबल भावना ही अभीष्ट होती है; उसीप्रकार निर्जराभावना में भी निर्जरा के कारण बारह तपों के विस्तार में जाना अभीष्ट नहीं होता, शुद्धोपयोगरूप आत्मध्यान की प्रबल भावना ही अभीष्ट होती है।
ज्ञानीजनों का एकमात्र अभीष्ट अनन्तसुखमय मोक्ष ही होता है। उसकी प्राप्ति की प्रबल हेतुभूत एवं आत्मशुद्धि की वृद्धिरूप निर्जरा की भावना उनके सहज ही प्रस्फुटित होती है और होनी भी चाहिए। ___ ध्यान रहे बारह भावनाओं में मोक्षभावना नाम की कोई भावना नहीं है; अतः इस निर्जराभावना में ही शुद्धि की पूर्णतारूप मोक्ष की भावना भी होती ही है। ___ अशुद्धि का सम्पूर्णतः अभाव और शुद्धि की पूर्णतः प्राप्ति ही मोक्ष है; तथा शुद्धि की उत्पत्ति व स्थितिरूप संवर तथा वृद्धिरूप निर्जरा मोक्षमार्ग है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए मोक्ष की भावना से भी अधिक महत्त्व मोक्षमार्ग की भावना का है। यही कारण है कि बारह भावनाओं में मोक्षमार्गरूप होने से संवर और निर्जरा को भावनाओं के रूप में स्वतंत्र स्थान प्राप्त है, जब कि मोक्ष को इन्हीं में सम्मिलित कर लिया गया है।
समयसार जैसे ग्रन्थाधिराज को समाप्त करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द समस्त जगत को मोक्षमार्ग में अपने आत्मा को स्थापित करने का आदेश देते हुए कहते हैं -
"मोक्खपहे अप्पाणं ठवेहि तं चेव झाहि तं चेय ।
तत्थेव विहर णिच्चं मा विहरसु अण्णदव्वेसु ॥४१२॥ हे आत्मन् ! तू अपने आपको मोक्षमार्ग में स्थापित कर, उसी का अनुभव कर, उसी का ध्यान कर और उसी में निरन्तर विहार कर; अन्य द्रव्यों में विहार मत कर।"