Book Title: Barah Bhavana Ek Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 144
________________ निर्जराभावना : एक अनुशीलन आत्मा का दर्शन, ज्ञान और ध्यान ही आत्मा में स्थापित होना है, आत्मा का अनुभव करना है, आत्मा में जमना - रमना है, आत्मा में विहार करना है तथा यही परिणमन मोक्षमार्ग में स्थापित होना है, मोक्षमार्ग में विहार करना है; अतः दोनों कथनों के भाव में कोई अन्तर नहीं है । मोक्षमार्ग में स्थापित होने का क्रियात्मकरूप आत्मश्रद्धान, आत्मज्ञान और आत्माचरण (आत्मध्यान) ही है, इससे भिन्न कुछ नहीं । १३६ जब द्रव्यस्वभाव की ओर से बात करते हैं तो उसे आत्मा की आराधना, साधना, उपासना कहते हैं और जब पर्यायस्वभाव की ओर से बात करते हैं तो उसी को रत्नत्रय की साधना, आराधना, उपासना या मोक्षमार्ग की साधना, आराधना या उपासना कहा जाता है। ध्येय, श्रद्धेय परमज्ञेयरूप उपास्य आराध्य तो त्रिकाली ध्रुव आत्मा ही है और उसके ध्यान, श्रद्धान एवं ज्ञानरूप उपासना-आराधना सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप मोक्षमार्ग है; अत: चाहे आत्मा की उपासना कहो, चाहे मोक्षमार्ग की उपासना कहो- एक ही बात है । संवर मोक्षमार्ग का आरम्भ है और निर्जरा मोक्षमार्ग; अतः संवरपूर्वक निर्जरारूप परिणमन ही मोक्षमार्ग में आरूढ़ होना है। इसी दिशा में निरन्तर बढ़ते रहने की भावना ही निर्जराभावना है। शुद्धोपयोग है स्वरूप जिसका - ऐसी भावनिर्जरारूप परिणमन कर, पूर्णत: स्वात्मनिष्ठ होकर सम्पूर्ण जगत अनन्त-आनन्दरूप मोक्षदशा को प्राप्त करेइस पावन भावना से विराम लेता हूँ । भगवान और भगवानदास अरे भाई, पर भगवान या पर्यायरूप भगवान की शरण में जाने वाले भगवानदास बनते हैं, भगवान नहीं । यदि स्वंय ही पर्याय में भगवान बनना हो तो जिन भगवान आत्मा की ही शरण में जाना होगा, उसे ही जानना - पहिचानना होगा, उसमें ही अपनापन स्थापित करना होगा, उसका ही ध्यान धरना होगा, उसमें ही समा जाना होगा इस बात को कभी भूलना नहीं चाहिए । आत्मा ही है शरण, पृष्ठ २०३

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