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बारहभावना : एक अनुशीलन
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इसप्रकार यह निश्चित होता है कि लोभावना में लोक के स्वरूप, आकारप्रकार एवं जीवादि पदार्थों का जो विस्तृत विवेचन किया जाता है; वह सब तो व्यवहार है, निश्चयलोक तो चैतन्यलोक ही है। उस चैतन्यलोक में रमण करना एवं रमण करने की उग्रतम भावना ही निश्चय-लोकभावना है; क्योंकि लोकभावना के चिन्तन का असली उद्देश्य तो आत्माराधना की सफल प्रेरणा ही है। ____ अतः सभी आत्मार्थीजन षद्रव्यमयी लोक को जानकर निज चैतन्यलोक में ही जम जाय, रम जाय और अनन्तसुखी हों - इस पावन भावना से विराम लेता हूँ।
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अनन्य रुचि जागृत करनी होगी हमें आध्यात्मिक ग्रन्थों के स्वाध्याय की वैसी रुचि भी कहाँ है, जैसी कि विषय-कपाय और उसके पोषक साहित्य पढ़ने की है। ऐसे बहुत कम लोग होंगे, जिन्होंने किसी आध्यात्मिक, सैद्धान्तिक या दार्शनिक ग्रन्थ का स्वाध्याय आद्योपान्त किया हो। साधारण लोग तो बंधकर स्वाध्याय करते ही नहीं, पर ऐसे विद्वान भी बहुत कम मिलेंगे, जो किसी भी महान ग्रन्थ का जमकर अखण्डरूप से स्वाध्याय करते हों। ___ आदि से अन्त तक अखण्डरूप से हम किसी ग्रन्थ को पढ़ भी नहीं सकते तो फिर उसकी गहराई में पहुँच जाना कैसे संभव है? जब हमारी इतनी रुचि नहीं कि उसे अखण्डरूप से पढ़ भी सकें तो उसमें प्रतिपादित अखण्ड वस्तु का अखण्ड स्वरूप हमारे ज्ञान और प्रतीति में कैसे आवे?
विषय-कषाय के पोषक उपन्यासादि को हमने कभी अधूरा नहीं छोड़ा होगा; उसे पूरा करके ही दम लेते हैं, उसके पीछे भोजन को भी भूल जाते है। क्या आध्यात्मिक साहित्य के अध्ययन में भी कभी भोजन को भूले हैं?
यदि नहीं, तो निश्चित समझिए हमारी रुचि अध्यात्म में उतनी नहीं, जितनी विषय-कषाय में है। ___'रुचि अनुयायी वीर्य' के नियमानुसार हमारी सम्पूर्ण शक्ति वही लगती है, जहाँ रुचि होती है। स्वाध्यायतप के उपचार को भी प्राप्त करने के लिए हमें आध्यात्मिक साहित्य में अनन्य रुचि जागृत करनी होगी।
__ - धर्म के दशलक्षण, पृष्ठ १११-११२