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लोकभावना
निज आतमा के भान बिन षद्रव्यमय इस लोक में । भ्रमरोगवश भव-भव भ्रमण करता रहा त्रैलोक्य में । करता रहा नित संसरण जगजालमय गति चार में ।
समभाव बिन सुख रञ्च भी पाया नहीं संसार में ॥१॥ षद्रव्यमय और तीन लोक वाले इस लोक में यह आत्मा आत्मा के ज्ञान विना भ्रमरूपी रोग के वश होकर भव-भव में भ्रमण करता रहा; जगत के जंजाल में उलझानेवाली चार गतियों में निरन्तर घूमता ही रहा। समताभाव के अभाव में इस संसार में इसे रंचमात्र भी सुख प्राप्त नहीं हुआ।
नर नर्क स्वर्ग निगोद में परिभ्रमण ही संसार है। षद्रव्यमय इस लोक में बस आतमा ही सार है ॥ निज आतमा ही सार है स्वाधीन है सम्पूर्ण है।
आराध्य है सत्यार्थ है परमार्थ है परिपूर्ण है ॥२॥ नरक, तिर्यञ्च, देव एवं मनुष्य गतियों में परिभ्रमण करते रहना ही संसार है। छह द्रव्यों वाले इस लोक में एक आत्मा ही सारभूत पदार्थ है । अपना आत्मा ही सार है, स्वाधीन है, सम्पूर्ण है, आराध्य है, सत्यार्थ है, परमार्थ है और परिपूर्ण है।