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निर्जराभावना : एक अनुशीलन
"वारसविहेण तवसा णियाणरहियस्स णिज्जरा होदि । वेरग्गभावणादो णिरहंकारस्स णाणिस्स ॥ १०२ ॥ जो समसोक्खणिलीणो वारं वारं सरेइ अप्पाणं । इन्दियकसायविजई तस्स हवे णिज्जरा परमा ॥ ११४॥ अहंकार और निदान रहित ज्ञानी के बारह प्रकार के तप से तथा वैराग्यभावना से निर्जरा होती है।
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जो साम्यभावरूप सुख में लीन होकर बार-बार आत्मा का स्मरण करता है, ध्यान करता है तथा इन्द्रियों और कषायों को जीतता है; उसके उत्कृष्ट निर्जरा होती है । "
उक्त गाथाओं में बारह प्रकार के तपों के साथ वैराग्यभावना को निर्जरा का कारण बताया गया है । सर्वाधिक महत्त्व इन्द्रियों और कषायों के जीतने, साम्यभाव धारण करने एवं आत्मस्मरण अर्थात् आत्मध्यान को दिया गया है; क्योंकि इनको सामान्यनिर्जरा का नहीं, परमनिर्जरा का कारण कहा गया है।
यद्यपि बारह तपों में ध्यान भी एक तप है; तथापि उसका उल्लेख पृथक्रूप से विशेष किया गया है। वस्तुतः बात तो यह है कि शुद्धोपयोगरूप आत्मध्यान की निरन्तर वृद्धि ही भावनिर्जरा है और द्रव्यनिर्जरा का मूल है।
धर्म की उत्पत्ति संवर, वृद्धि निर्जरा और पूर्णता मोक्ष है । आत्मशुद्धि ही धर्म है; अत: इसे इसप्रकार भी कह सकते हैं कि शुद्धि की उत्पत्ति संवर, शुद्धि की वृद्धि निर्जरा और शुद्धि की पूर्णता ही मोक्ष है ।
भेदविज्ञान और आत्मानुभूतिपूर्वक निश्चयरत्नत्रयरूप शुद्धि की उत्पत्ति व स्थिति भावसंवर है और उसके निमित्त से आते हुए कर्मों का रुकना द्रव्यसंवर; आत्मध्यानरूप शुद्धोपयोग से उक्त शुद्धि की वृद्धि होते जानाशुद्धि का निरन्तर बढ़ते जाना भावनिर्जरा है और उसके निमित्त से पूर्वबद्ध कर्मों का समय से पूर्व ही खिरते जाना द्रव्यनिर्जरा है; तथा पूर्ण शुद्धि का प्रगट हो जाना ही भावमोक्ष है, तदनुसार सम्पूर्ण द्रव्यकर्मों से आत्मा का मुक्त हो जाना द्रव्यमोक्ष है ।