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संवरभावना : एक अनुशीलन
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समा जाती है, उसी में विलीन हो जाती है; तब वह धर्म बन जाती है, आत्मा बन जाती है, धर्मात्मा बन जाती है।
आत्मा का धर्मरूप परिणमित हो जाना ही धर्मात्मा बन जाना है। धर्मपरिणत आत्मा को ही धर्मात्मा कहा जाता है। धर्मपरिणति को प्राप्त आत्मा ही मुक्ति प्राप्त करता है; अत: यह भावना मुक्ति की नसैनी ही है। अतीन्द्रियआनन्द की उत्पादक होने से आनन्द की जननी भी है। भेदविज्ञानमय होने से सुबुद्धिरूपी छैनी तो है ही।
कविवर पण्डित दौलतरामजी कहते हैं - "जिन परमपैनी सुबुधि छैनी डारि अन्तर भेदिया। वरणादि अरु रागादि से निजभाव को न्यारा किया। निजमांहि निज के हेतु निज कर आपको आपै गह्यो। गुण-गुणी ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय मँझार कछु भेद न रह्यो।"
यहाँ उनकी ही प्रशंसा, उनकी ही स्तुति, उनको ही वंदना की गई है, जिन्होंने परमपैनी सुबुद्धिरूपी छैनी को अन्तर में डालकर, स्व-पर का भेदविज्ञान कर, वर्णादि परपदार्थों और रागादिभावों से निजभाव को न्यारा कर लिया है और अपने लिए ही, अपने द्वारा ही, अपने में ही, अपने को ग्रहण कर लिया है। अतः अब गुण-गुणी, ज्ञान-ज्ञेय एवं ज्ञाता के बीच कोई भेद नहीं रह गया है। सब अभेद अनुभूति में एकमेक हो समाहित हो गये हैं। ___ वर्णादि माने पुद्गलादि परपदार्थ और रागादि माने अपनी ही आत्मा में उत्पन्न होनेवाले चिद्विकार। निजभाव माने ज्ञानानन्दस्वभावी त्रिकाली ध्रुव निजशुद्धात्मतत्त्व। ___ पुद्गलादि परपदार्थों एवं चिद्विकारों से भिन्न अपने आत्मा को जानना, पहिचानना और पृथक् अनुभव करना ही वर्णादि और रागादि से निजभाव को न्यारा करना है। यह सब सुबुद्धिरूपी परमपैनी छेनी से ही संभव है।
१. छहढाला; छठवीं ढाल, छन्द ८