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निर्जराभावना : एक अनुशीलन शुद्धातमा की रुची संवर साधना है निर्जरा । ध्रुवधाम निज भगवान की आराधना है निर्जरा ॥ वैराग्यजननी बंध की विध्वंसनी है निर्जरा । है साधकों की संगिनी आनन्दजननी निर्जरा ॥ "संवरजोगेहि जुदो तवेहिं जो चिट्ठदे बहुविहेहिं ।
कम्माणं निज्जरणं बहुगाणं कुणदि सो णियदं ॥ शुभाशुभभाव के निरोधरूप संवर और शुद्धोपयोगरूप योग से युक्त जो जीव अनेक प्रकार के तप करता है; वह नियम से अनेक प्रकार के कर्मों की निर्जरा करता है।"
आचार्य कुन्दकुन्द के उक्त कथन में निम्नांकित दो बात अत्यन्त स्पष्ट हैं - (१) निर्जरा संवरपूर्वक ही होती है। (२) शुद्धोपयोग से समृद्ध तप ही निर्जरा के मुख्य हेतु हैं।
इसी गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र निर्जरा के द्रव्यनिर्जरा और भावनिर्जरा रूप भेदों की चर्चा इसप्रकार करते हैं - __ "तदत्र कर्मवीर्यशातनसमर्थो बहिरङ्गान्तरङ्गतपोवृहितः शुद्धोपयोगो भावनिर्जरा, तदनुभावनीरसीभूतानामेकदेशसंक्षयः समुपात्तकर्मपुद्गलानां द्रव्यनिर्जरेति।
१. पंचास्तिकायसंग्रह, गाथा १४४