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संवरभावना : एक अनुशीलन मैं ध्येय हूँ श्रद्धेय हूँ मैं ज्ञेय हूँ मैं ज्ञान हूँ। बस एक ज्ञायकभाव हूँ मैं मैं स्वयं भगवान हूँ॥ यह ज्ञान यह श्रद्धान बस यह साधना आराधना।
बस यही संवरतत्त्व है बस यही संवरभावना॥ "आस्रव का निरोध संवर है। वह संवर तीन गुप्ति, पाँच समिति, दश धर्म, बारह भावना, बाईस परीषहजय और पाँच प्रकार के चारित्र से होता है।"
महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र के उक्त कथन से एक बात अत्यन्त स्पष्ट है कि संवरभावना और संवरतत्त्व में कारण-कार्य का सम्बन्ध है; क्योंकि उक्त कथन में बारह भावनाओं को संवर के कारणों में गिनाया गया है और संवरभावना भी बारह भावनाओं में एक भावना है।
इसप्रकार यह बात सहज ही स्पष्ट हो जाती है कि संवरभावना कारण है और संवरतत्त्व कार्य है।
यदि कारण-कार्य को अभेददृष्टि से देखें तो संवरभावना और संवरतत्त्व एक ही सिद्ध होते हैं।
जब संवरभावना सम्बन्धी उपलब्ध समग्र चिन्तन पर दृष्टि डालते हैं तो अधिकांशतः यही दिखाई देता है कि संवरभावना में संवर और उसके कारणों का चिन्तन बिना भेदभाव किए समग्ररूप से ही हुआ है।
इस संदर्भ में संवरभावना सम्बन्धी निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है -
१. आचार्य उमास्वामी : तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ९, सूत्र १-२