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संवरभावना
देहदेवल में रहे पर देह से जो भिन्न है । है राग जिसमें किन्तु जो उस राग से भी अन्य है ॥ गुणभेद से भी भिन्न है पर्याय से भी पार है । जो साधकों की साधना का एक ही आधार है ॥ १ ॥
यह भगवान आत्मा यद्यपि देहरूपी मन्दिर में रहता है, पर देह से भिन्न ही है । इसीप्रकार रागादि विकारीभाव इसमें ही उत्पन्न होते हैं, पर यह उनसे भी भिन्न है। अधिक क्या कहें? अनन्त गुणवाला होने पर भी यह आत्मा गुणभेद से भिन्न एवं निर्मल पर्यायों से भी पार है। साधकों की साधना का एकमात्र आधार भी यही शुद्धात्मा है ।
मैं हूँ वही शुद्धात्मा चैतन्य का मार्तण्ड हूँ । आनन्द का रसकन्द हूँ मैं ज्ञान का घनपिण्ड हूँ ॥ मैं ध्येय हूँ श्रद्धेय हूँ मैं ज्ञेय हूँ मैं ज्ञान हूँ बस एक ज्ञायकभाव हूँ मैं मैं स्वयं भगवान हूँ ॥ २ ॥
ऐसा शुद्धात्मा और कोई नहीं, मैं ही हूँ । चैतन्यरूपी सूर्य, आनन्द का कन्द और ज्ञान का घनपिण्ड आत्मा मैं ही हूँ। मैं ही ध्यान का ध्येय, श्रद्धान का श्रद्धेय, परमज्ञान का ज्ञेय हूँ। मात्र ज्ञेय ही नहीं, ज्ञान भी मैं ही हूँ। बस, मैं तो एक ज्ञायकभाव ही हूँ । अधिक क्या कहूँ? मैं स्वयं भगवान हूँ ।