________________
१२१
बारहभावना : एक अनुशीलन
जब भेदविज्ञान की कला प्रगट होती है, तब जीव अपना शुद्धस्वभाव प्राप्त करता है और तभी सभी राग-द्वेष-मोह गल जाते हैं और दुष्कर्म आने से रुक जाते हैं; उज्वल ज्ञान का प्रकाश होता है और शुद्धात्मा में परमसंतोष प्राप्त होता है। इसप्रकार मुनिराज उत्तम विधि को धारण कर केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं और अनन्तसुखी होकर मोक्ष में चले जाते हैं।" ___ शाश्वत अतीन्द्रिय आनन्द की उपलब्धि में भेदविज्ञान के योगदान की चर्चा करते हुए कविवर पण्डित बनारसीदासजी लिखते हैं -
"प्रगटि भेदविज्ञान, आपगुन परगुन जाने। पर परनति परित्याग, शुद्ध अनुभौ थिति ठाने। करि अनुभौ अभ्यास, सहज संवर परगासै।
आस्रव द्वार निरोधि, करमघन-तिमिर विनासै॥ छय करि विभाव समभाव भजि, निरविकलप निज पद गहै। निर्मल विसुद्धि सासुत सुथिर, परम अतीन्द्रिय सुख लहै॥
भेदविज्ञान प्रगट होने पर अपने और पराये की पहिचान हो जाती है; अतः वह भेदविज्ञानी जीव परपरणति का परित्याग करके शुद्धात्मा के अनुभव में स्थिरता करता है, अभ्यास करता है। अभ्यास के द्वारा आस्रव के द्वारों का निरोध कर संवर को प्रकाशित करता है। कर्मजन्य घने अंधकार का नाश करता है; विभावों का नाश कर समभाव को भजकर निर्विकल्प निजपद को प्राप्त कर निर्मल, विशुद्ध, शाश्वत, स्थिर, अतीन्द्रिय परमानन्द को प्राप्त करता है।" ___ धर्म का आरंभ संवर से ही होता है; क्योंकि मिथ्यात्व नामक महापाप का निरोधक, मिथ्याज्ञानांधकार का नाशक एवं अनन्तानुबन्धी कषाय का विनाशक संवर ही है।
जब भी किसी जीव को धर्म का आरंभ होता है, तब सबसे प्रथम मिथ्यात्व, अज्ञान और अनन्तानुबन्धी कषाय सम्बन्धी असंयम के अभाव-पूर्वक ही होता
१. समयसार नाटक; संवर द्वार, छन्द ११