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आस्रवभावना : एक अनुशीलन
के हेयत्व का निरन्तर चिन्तन करें, विचार करें; क्योंकि निरन्तर किया हुआ यही चिन्तन, यही विचार आस्रवभावना है।
ध्यान रहे उक्त चिन्तन, विचार तो आस्रवभावना का व्यावहारिकरूप है अर्थात् यह तो व्यवहार-आस्रवभावना है। निश्चय-आस्रवभावना तो आस्रवभावों से भिन्न भगवान आत्मा के श्रद्धान, ज्ञान व ध्यानरूप परिणमन है।
यह आस्रवभावना स्वयं संवररूप होने से आस्रवभावों की निरोधक और वीतरागभावों की उत्पादक है।
आस्रवभावों की निरोधक एवं वीतरागभावों की उत्पादक इस आस्रवभावना का निरन्तर चिन्तन कर आस्रवभावों से भिन्न भगवान आत्मा के श्रद्धान, ज्ञान एवं ध्यानरूप परिणमन कर सम्पूर्ण जगत वीतरागी सुखशान्ति को प्राप्त करें - इस पावन भावना से विराम लेता हूँ।
स्वभाव के सामर्थ्य को देख! देह में विराजमान, पर देह से भिन्न एक चेतनतत्त्व है। यद्यपि उस चेतनतत्त्व में मोह-राग-द्वेष की विकारी तरंगें उठती रहती है, तथापि वह ज्ञानानन्दस्वभावी ध्रुवतत्व उनसे भिन्न परमपदार्थ है, जिसके आश्रय से धर्म प्रगट होता है। उस प्रगट होने वाले धर्म को सम्यग्दर्शन-ज्ञान और चारित्र कहते हैं।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र दशा अन्तर में प्रगट हो, इसके लिए परमपदार्थ ज्ञानानन्दस्वभावी ध्रुवतत्व की अनुभूति अत्यन्त आवश्यक हैं। उस अनुभूति को ही आत्मानुभूति कहते हैं । वह आत्मानुभूति जिसे प्रगट हो गई, 'पर' से भिन्न चैतन्य आत्मा का ज्ञान जिसे हो गया; वह शीघ्र ही भव-भ्रमण से छुट जायेगा। 'पर' से भिन्न चैतन्य आत्मा का ज्ञान ही भेदज्ञान है। यह भेदज्ञान
और आत्मानुभूति सिंह जैसी पर्याय में भी उत्पन्न हो सकती है और उत्पन्न होती भी है। अत: हे मृगराज! तुझे इसे प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।
हे मृगराज! तू पर्याय की परमात्मा का विचार मत कर, स्वभाव के सामर्थ्य की ओर देख!
- तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ ४७