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बारहभावना : एक अनुशीलन
है तथा पैर ढूंठ के समान है; स्त्रियों का ऐसा यह अपवित्र शरीर क्या महान् पुरुषों के लिए अनुराग का कारण हो सकता है? नहीं, कदापि नहीं।"
यद्यपि उक्त सम्पूर्ण कथन स्त्री शरीर को लक्ष्य में लेकर किया गया है; तथापि इसका आशय यह कदापि नहीं है कि पुरुष शरीर पवित्र होता है। पुरुष शरीर भी स्त्री शरीर के समान ही मल-मूत्र का घर एवं रक्त, माँस और हड्डियों का ही पिण्ड है। ___चाहे नरदेह की चर्चा हो, चाहे नारीदेह की; इसीप्रकार चाहे स्वदेह की चर्चा हो या परदेह की; अशुचिभावना में सभी देहों की चर्चा उनकी स्वभावगत अशुचिता के दिग्दर्शन के लिए ही होती है; क्योंकि अशुचिभावना के चिन्तन का प्रयोजन स्व-पर देह एवं तत्सम्बन्धी भोगों से विरक्ति उत्पन्न करना होता है। ___ यह शरीर स्वयं तो अशुचि है ही, इसके संसर्ग में आनेवाला प्रत्येक पदार्थ भी इसके संयोग से अपवित्र हो जाता है। शुद्ध, सात्त्विक, सुस्वादु, सुन्दरतम भोजन इसके संसर्ग में आते ही उच्छिष्ट हो जाता है, मुँह में डालते ही अपवित्र हो जाता है, चबाया हुआ ग्रास हाथ में लेते स्वयं को भी ग्लानि उत्पन्न होती है। पेट में पहुँच जाने के बाद वमन हो जावे तो उसे कोई छूने को भी तैयार नहीं होता। अधिक काल तक देह के सम्पर्क में रहने पर तो वह मल-मूत्र में परिणमित हो ही जाता है। __प्रातः शुद्ध, साफ, सुन्दर, वस्त्र पहनते हैं तो शाम तक ही मैले-कुचैले हो जाते हैं, पसीने की गन्ध आने लगती है। निर्मल जल से स्नान करने पर भी यह शरीर तो निर्मल नहीं होता, जल अवश्य मैला हो जाता है। इस बात की चर्चा करते हुए स्नानाष्टक में कहा गया है -
"सन्माल्यादि यदीयसंनिधिवशादस्पृश्यतामाश्रयेद् विण्मूत्रादिभृतं रसादिघटितं वीभत्सु यत्पूति च ।
आत्मानं मलिनं करोत्यपि शुचिं सर्वाशुचीनामिदं
संकेतैकगृहं नृणां वपुरपां स्नानात्कथं शुद्धयति ॥ १. पद्मनन्दि पंचविंशति : अध्याय २५, छन्द १