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आस्त्रवभावना : एक अनुशीलन संयोगजा चिवृत्तियाँ भ्रमकूप आस्रवरूप हैं। दुखरूप हैं दुखकरण हैं अशरण मलिन जड़रूप हैं। संयोग विरहित आतमा पावन शरण चिद्रूप है।
भ्रमरोगहर संतोषकर सुखकरण है सुखरूप है। शरीरादि संयोगी पदार्थों में एकत्व-ममत्व एवं इन्हीं शरीरादि के लक्ष्य से आत्मा में उत्पन्न होनेवाली राग-द्वेषरूप विकल्पतरंगें भावास्रव हैं, तथा इन्हीं भावात्रवों के निमित्त से कार्माण वर्गणाओं का कर्मरूप परिणमित होना द्रव्यास्रव है।
भावास्रव व द्रव्यास्रव - इन दो भेदों के अतिरिक्त मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग - इन पाँच भेदों में भी आस्रव विभाजित किया जाता है।
ये पाँचों भाव भी भाव और द्रव्य के रूप में दो-दो प्रकार के होते हैं। इनमें भावमिथ्यात्वादि आत्मा के विकारी परिणाम हैं और द्रव्यमिथ्यात्वादि कार्माण वर्गणा के कर्मरूप परिणमन हैं।
शरीरादि संयोगों के समान ये आस्रवभाव भी अनित्य हैं, अशरण हैं, अशुचि हैं, आत्मस्वभाव से अन्य हैं, चतुर्गति में संसरण (परिभ्रमण) के हेतु हैं, दुःखरूप हैं, दुःख के हेतु हैं, जड़ हैं। इनसे भिन्न ज्ञानादि अनन्त गुणों का अखण्डपिण्ड भगवान आत्मा नित्य है, परमशरणभूत है, संसारपरिभ्रमण से रहित, परमपवित्र, आनन्द का कन्द है और अतीन्द्रियानन्द की प्राप्ति का हेतु भी है। - इसप्रकार का चिन्तन ही आस्रवभावना है।