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बारहभावना : एक अनुशीलन
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होते ही नहीं हैं। जिनके पापभाव हैं ही नहीं, वे उनके हेयत्व के चिन्तन में बहुमूल्य समय क्यों बर्बाद करेंगे ?
योगसार में कहा है
" जो पाउ वि सो पाउ सुणि सव्व इ को वि मुणेइ । जो पुण्णु वि पाउ वि भणइ सो बुह को वि हवे ॥
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पाप को पाप तो सारा जगत जानता है; ज्ञानी तो वह है, जो पुण्य को भी पाप जाने । तात्पर्य यह है कि जो पापास्रव के समान पुण्यास्रव को भी हेय मानता है, वही ज्ञानी है । "
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि अनुशीलन तो आस्रवभावना का चल रहा है, इसमें पुण्य-पाप की बात बीच में कहाँ से आ टपकी ?
भाई ! इसमें विषयान्तर नहीं है, क्योंकि भावास्रव और द्रव्यास्रव के समान पुण्यास्रव और पापास्रव भी आस्रव के ही भेद हैं, आस्रव के ही प्रकार हैं । आस्रव के सभी प्रकारों की चर्चा यदि आस्रव की चर्चा के साथ नहीं हुई तो कहाँ होगी ?
पहले स्पष्ट किया जा चुका है कि आरंभ की छह भावनाएँ मुख्यरूप से वैराग्यपरक हैं और अन्त की छह भावनाओं की चिन्तनधारा मुख्यरूप से तत्त्वपरक होती है । आस्रवभावना में आस्रवतत्त्व के साथ-साथ बंधतत्त्व और पुण्य-पाप तत्त्वों की चर्चा भी अपेक्षित है, क्योंकि बंधभावना या पुण्यपापभावना नाम की कोई स्वतंत्र भावना नहीं है; अतः आस्रवभावना में पुण्यपाप और बंध संबंधी चिन्तन होना स्वाभाविक ही है ।
दूसरी बात यह भी तो है कि पुण्य-पाप और बंध को छोड़कर अकेले आस्रव का चिन्तन संभव ही नहीं है; क्योंकि भावास्रव और भावबंध में विशेष अन्तर ही क्या है? जिन मोह-राग-द्वेष भावों को भावास्रव कहते हैं; उन्हीं को भावबंध भी कहा जाता है। यह मोह राग-द्वेष भाव ही पुण्य-पाप बंध के
१. जोइन्दु : योगसार, दूहा ७१