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बारहभावना : एक अनुशीलन
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'जीव के स्वरूप से देह भिन्न है' - जो जीव इस तात्त्विक मर्म को जानकर अपने आत्मा का सेवन (अनुभव) करता है, अन्यत्वभावना उसी के लिए कार्यकारी है अर्थात् सफल है।" __ आचार्य अमितगति भी जीव से भिन्न देहादि संयोगों पर से दृष्टि हटा लेने की प्रेरणा देते हुए सामायिक पाठ में कहते हैं - "यस्यास्ति नैक्यं वपुषापि सार्द्ध, तस्यास्ति किं पुत्रकलत्रमित्रैः ।
पृथक्कृते चर्मणि रोमकूपा, कुतो हि तिष्ठन्ति शरीरमध्ये ॥२७॥
जिस आत्मा का शरीर के साथ भी ऐक्य नहीं है; उसका पुत्र, पत्नी और मित्र के साथ ऐक्य कैसे हो सकता है? ठीक ही है; क्योंकि शरीर से चमड़ी दूर कर देने पर रोमछिद्र कैसे रह सकते हैं?"
और भी देखिए - "न सन्ति बाह्या मम केचनार्था, भवामि तेषां न कदाचनाहम् ।
इत्थं विनिश्चित्य विमुच्य बाह्य, स्वस्थः सदा त्वं भव भद्र मुक्त्यै ॥२३॥
कोई बाह्य शरीरादि सांसारिक पदार्थ न तो मेरे हैं और न मैं उनका हूँ - ऐसा निश्चय करके हे भद्रजीव! तू बाह्यपदार्थ को छोड़ और मुक्ति की प्राप्ति के लिए निरन्तर स्वस्थ हो अर्थात् अपनी आत्मा में ही पूर्णतः लीन रह।"
इस सन्दर्भ में आचार्य पूज्यपाद का कथन भी द्रष्टव्य है -
"शरीर से अन्यत्व का चिन्तन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। यथा - बन्ध की अपेक्षा अभेद होने पर भी लक्षण के भेद से मैं अन्य हूँ। शरीर ऐन्द्रिय है, मैं अतीन्द्रिय हूँ। शरीर अज्ञ है, मैं ज्ञाता हूँ। शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ। शरीर आदि-अन्तवाला है और मैं अनाद्यनन्त हूँ। संसार में परिभ्रमण करते हुए मेरे लाखों शरीर अतीत हो गये, मैं उससे भिन्न ही हूँ - इसप्रकार शरीर से भी जब मैं अन्य हूँ, तब हे वत्स! मैं बाह्य पदार्थों से भिन्न होऊँ तो इसमें क्या आश्चर्य ? - इसप्रकार मन को समाधानयुक्त करनेवाले को इस शरीरादिक में स्पृहा उत्पन्न