________________
बारहभावना : एक अनुशीलन
जो अप्पा सुद्ध वि मुणइ, असुइ-सरीर-विभिण्णु ।
जो जाणइ सत्थई सयल, सासय-सुक्खहँ लीणु ॥ जो जीव अशुचि शरीर से भिन्न शुद्ध आत्मा को जानता है, शाश्वत सुख में लीन वह आत्मा समस्त शास्त्रों को जान जाता है। भावार्थ यह है कि जिसने समस्त शास्त्रों के सारभूत निज शुद्धात्मतत्त्व को जान लिया और उसी में लीन हो गया, मूल प्रयोजन सिद्ध हो जाने से उसने एक प्रकार से समस्त शास्त्रों को ही जान लिया है।"
आत्मोपलब्धि की विधि में शरीरादि संयोगी परपदार्थों से भिन्नत्व की भावना का क्या स्थान है, क्या महत्त्व है, क्या क्रम है?-यह बात कविवर पंडित बनारसीदास के निम्नांकित छन्द में अत्यन्त स्पष्टरूप से मुखरित हुई है - "प्रथम सुद्रिष्टि सौं सरीररूप कीजै भिन्न,
तामैं और सूच्छम सरीर भिन्न मानिये । अष्ट कर्म भाव की उपाधि सोऊ कीजै भिन्न,
ताहू मैं सुबुद्धिकौ विलास भिन्न जानिये ॥ तामैं प्रभु चेतन विराजत अखण्डरूप,
वहै श्रुतग्यान के प्रवांन उर आनिये । वाही को विचार करि वाही मैं मगन हजै,
वाको पद साधिबे कौं ऐसी विधि ठानिये ॥ सर्वप्रथम सुतीक्ष्ण दृष्टि से आत्मा को औदारिकादि स्थूल शरीरों से भिन्न जानना चाहिए, फिर तैजस-कार्माण सूक्ष्म शरीरों से भी भिन्न जानना-मानना चाहिए। तदनन्तर अष्ट कर्मों के उदय से होनेवाले जीव के मोह-राग-द्वेषरूप औपाधिकभावों अर्थात् भावकों से भिन्न जानना चाहिए।
- इसप्रकार नोकर्म, द्रव्यकर्म और भावकर्म से अथवा वर्णादि और रागादिभावों से आत्मा को भिन्न जानने के बाद सुबुद्धि के विलास अर्थात् इन
१. योगसार दोहा, ९५ २. नाटक समयसार, बंधद्वार, छन्द ५५