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अन्यत्वभावना : एक अनुशीलन
रहना है और कुछ नहीं करना है; जानने का विकल्प भी नहीं करना है, जानना भी सहज होने देना है। कर्तृत्व का तनाव रंचमात्र भी नहीं रखना है; बस मात्र सहज जानना, जानना, जानना होने दो। होने तो दो घड़ी दो घड़ी इस सहज परिणमन को; इससे अन्तर से अनन्तवीर्य उल्लसित होगा, आनन्द का सागर तरंगित हो उठेगा, देह-देवल में विराजमान देवता के प्रदेश-प्रदेश में आनन्द की तरंगें उल्लसित हो उठेगी। देह-देवल भी उसकी तरंगों से तरंगायित हो रोमांचित हो उठेगा, तेजोद्दीप्त हो उठेगा।
जब यह सब तेरे अन्तर में घटित होगा, तभी पर से एकत्व और ममत्व विघटित होगा; तभी अन्यत्वभावना का चिन्तन सफल होगा - सार्थक होगा। . होगा, अवश्य होगा; निराश होने की आवश्यकता नहीं, एक न एक दिन यह सब अवश्य घटित होगा। यदि अन्तर की रुचि जागृत रही, विवेक कुण्ठित न हुआ, तो एक न एक दिन पर में एकत्व के, ममत्व के बादल विघटित होंगे ही, राग के तन्तु भी टूटेंगे। सम्यक् दिशा में किया गया सम्यक् पुरुषार्थ कभी निष्फल नहीं जाता।
सर्वप्रभुतासम्पन्न, पर से भिन्न, निज शुद्धात्मतत्त्व को जन-जन जाने, पहिचाने; उसी में जमे, रमे और अतीन्द्रिय आनन्दामृत का पान कर आनन्दमग्न हों - इस पावन भावना से विराम लेता हूँ।
वही सत्पुरुष है सत्पुरुष की सच्ची पहिचान ही यही है कि जो त्रिकाली ध्रुवरूप निज परमात्मा का स्वरूप बताये और उसी की शरण में जाने की प्रेरणा दे; वही सत्पुरुष है। दुनियादारी में उलझाने वाले, जगत के प्रपंच में फंसाने वाले पुरुष कितने ही सज्जन क्यों न हों, सत्पुरुष नहीं है - इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए।
- निमित्तोपादान, पृष्ठ ३४