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बारहभावना : एक अनुशीलन
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इसीप्रकार का भाव 'पद्मनंदिपंचविंशति' में भी व्यक्त किया गया है -
"क्षीरनीरवदेकत्र स्थितयोर्देहदेहिनो।
भेदो यदि ततोऽन्येषु कलत्रादिषु का कथा॥ देह और आत्मा की स्थिति दूध और पानी के समान एकत्रित मात्र है। जब एकक्षेत्रावगाही शरीर और आत्मा ही भिन्न-भिन्न हैं तो प्रत्यक्ष भिन्न स्त्री आदि का क्या कहना?" ___ पण्डित दीपचन्दजी कृत बारह भावना में यह बात और भी अधिक स्पष्टरूप से कही गई है -
"जा तन में नित जिय वसै, सो न आपनो होय।
तो प्रतक्ष जो पर दरब, कैसे अपने होय॥ जिस शरीर में जीव नित्य रहता है, जब वह शरीर ही अपना नहीं होता, तब जो परद्रव्य प्रत्यक्ष पर हैं, वे अपने कैसे हो सकते हैं?"
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि जब अन्यत्वभावना में शरीरादि संयोगों से जीव को अत्यन्त भिन्न बताना ही अभीष्ट है तो फिर यहाँ यह कहने से क्या साध्य है कि जीव और शरीर पानी और दूध के समान मिले हुए हैं?
भाई! बात यह है कि अनादिकाल से यह अज्ञानी प्राणी यह मानता आ रहा है कि जीव और शरीर एक ही हैं; क्योंकि इसे सशरीर जीव तो सर्वत्र दिखाई देते हैं, पर देह से भिन्न भगवान आत्मा कभी दिखाई नहीं दिया तथा जिनवाणी में भी व्यवहारनय से जीव और शरीर को एक कहा गया है। समयसार की २७वीं गाथा में साफ-साफ लिखा है -
"ववहारणयो भासदि जीवो देहो हवदि खलु एक्को । व्यवहारनय से जीव और शरीर एक ही है।" पर साथ-साथ यह भी लिखा है -
"ण दु णिच्छयस्य जीवो देहो य कदा वि एकठ्ठो । १. पद्मनंदिपंचविंशति : अध्याय ६, श्लोक ४९