________________
बारहभावना : एक अनुशीलन
"विध्याति कषायाग्नि विगलितरागो विलीयते ध्वान्तम् ।
उन्मिषति बोधदीपो हृदि पुंसां भावनाभ्यासात् ॥ इन बारह भावनाओं के अभ्यास से जीवों की कषायरूपी अग्नि शान्त होजाती है, राग गल जाता है, अन्धकार विलीन हो जाता है और हृदय में ज्ञानरूपी दीपक विकसित हो जाता है।"
पण्डित दौलतरामजी छहढाला में लिखते हैं - "मुनि सकलव्रती बड़भागी, भव-भोगन तें वैरागी।
वैराग्य उपावन माई, चिन्तै अनुप्रेक्षा भाई ॥ इन चिन्तत समसुख जागै, जिमि ज्वलन पवन के लागै। जब ही जिय आतम जानै, तब ही जिय शिवसुख ठानै ॥ जिसप्रकार माँ पुत्र को उत्पन्न करती है; उसी प्रकार बारह भावनाएँ वैराग्य को उत्पन्न करनेवाली हैं। यही कारण है कि सांसारिक भोगों से अत्यन्त विरक्त बड़भागी (बड़े भाग्यवान) महाव्रतधारी मुनिराज भी इनका चिन्तवन करते हैं।
जिसप्रकार हवा के लगने से अग्नि प्रज्वलित हो उठती है; उसीप्रकार इन बारह भावनाओं के चिन्तन से समतारूपी सुख जागृत हो जाता है। जब यह जीव अपनी आत्मा को जानता है, पहचानता है और उसी में जम जाता है, रम जाता है; तब ही अतीन्द्रिय आनन्द को, परिपूर्ण दशा मुक्ति को प्राप्त करता है।" ___अनुप्रेक्षा अर्थात् चिन्तन, बार-बार चिन्तन। किसी विषय की गहराई में जाने के लिए उसके स्वरूप का बार-बार विचार करना ही चिन्तन है। यद्यपि चिन्तन वस्तुस्वरूप के निर्णय के लिए किया जाता है; तथापि यदि विषय रुचिकर हो तो निर्णीत विषय भी बार-बार चिन्तन का आधार बनता है।
१. ज्ञानार्णव, भावना अधिकार, छन्द १९२ २. छहढाला, पाँचवीं ढाल, छन्द १ व २