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बारहभावना : एक अनुशीलन
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यदि शुद्धात्मा या पंचपरमेष्ठी का आश्रय लें, तो तत्सम्बन्धी आकुलताव्याकुलता से मुक्त अवश्य हो सकते हैं।
शुद्धात्मा और पंचपरमेष्ठी की शरण का मात्र यही आशय है, इससे अधिक और कुछ नहीं। दोनों बातें अत्यन्त स्पष्टरूप से भिन्न-भिन्न हैं -
(१) मृत्यु से बचने के लिए शरण खोजने की बात।
(२) आकुलता-व्याकुलता से बचकर सुखी होने के लिए शरण खोजने की बात। ___ शुद्धात्मा और पंचपरमेष्ठी - दोनों में मृत्यु से बचने के लिए कोई शरण नहीं है; किन्तु आकुलता-व्याकुलता से बचकर सुखी रहने के लिए शुद्धात्मा
और पंचपरमेष्ठी ही शरण हैं। ___ इसप्रकार हम देखते हैं कि अशरणभावना में जिन्हें अशरण बताया गया है, वे जनम-मरण आदि संयोग तो पूर्णतः अशरण ही हैं; अत: अशरणभावना पूर्णतः अशरणस्वरूप ही है, शरण और अशरण के मिश्रणरूप नहीं।
उक्त स्पष्टीकरण के सम्बन्ध में एक प्रश्न सहजरूप से उपस्थित होता है कि यदि अशरणभावना अशरणरूप ही है, तो फिर उसमें शरण की चर्चा ही क्यों की गई ? इस अनावश्यक चर्चा से व्यर्थ के भ्रम खड़े हो जाते हैं।
भाई! यह चर्चा अनावश्यक नहीं, अत्यन्त आवश्यक है। आगम में अनावश्यक चर्चायें नहीं की जातीं। उसमें जो भी चर्चा होती है, उसका अपना एक विशेष प्रयोजन होता है। हमें उस प्रयोजन को समझने का प्रयत्न करना चाहिए।
अशरणभावना का मूल प्रयोजन संयोगों और पर्यायों की अशरणता का ज्ञान कराकर दृष्टि को वहाँ से हटाकर स्वभावसन्मुख ले जाना है। इसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए संयोगों और पर्यायों को अशरण बताया जाता है और इसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए शुद्धात्मा और पंचपरमेष्ठी को शरणभूत या परमशरण बताया जाता है।