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बारहभावना : एक अनुशीलन
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गहराई से विचार करें तो दुःख का ही दूसरा नाम संसार है। अनादिकाल से चतुर्गति में भटकते हुए इस जीव ने अनन्त दुःख भोगे हैं और निरन्तर भोग रहा है। बड़े ही भाग्य से सहज ही विचारशक्ति और विचार का अवसर प्राप्त हो गया है; अतः अवसर चूकना योग्य नहीं। संसार में सुख की कल्पना में उलझे रहकर यदि यह अवसर चूक गया तो फिर चार गति और चौरासी लाख योनियों में भटकने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं रहेगा; अतः संसार की असारता जानकर सारभूत निज शुद्धात्मा की आराधना में ही सार है।
संसारभावना सम्बन्धी इसप्रकार के विचार-चिन्तन-मनन-घोलन की सार्थकता तभी है; जब चिन्तक की दृष्टि, उपयोग और ध्यान संयोगों पर से हटकर स्वभावसन्मुख हो अतीन्द्रिय-आनन्द का अनुभव करे।
सभी आत्मार्थीजन संसार के दु:खमयी स्वरूप का विचार कर स्वभावसन्मुख हो अनन्तसुख को प्राप्त करें - इस पावन भावना के साथ विराम लेता हूँ।
बन्धन तभी तक बन्धन है, जब तक बन्धन की अनुभूति है। यद्यपि पर्याय में बन्धन है; तथापि आत्मा तो अबन्धस्वभावी ही है। अनादिकाल ये यह अज्ञानी प्राणी अबन्धस्वभावी आत्मा को भूलकर बन्धन पर केन्द्रित हो रहा है। वस्तुतः बन्धन की अनुभूति ही बन्धन है। वास्तव में 'मैं बंधा हूँ'। इस विकल्प से यह जीव बंधा है। लौकिक बन्धन से विकल्प का बन्धन अधिक मजबूत है। विकल्प का बन्धन टूट जावें तथा अबन्ध की अनुभूति सघन हो जावे तो बाह्य बन्धन भी सहज ही टूट जाते हैं । बन्धन के विकल्प से, स्मरण से, मनन से दीनता-हीनता का विकास होता है। अबन्ध की अनुभूति से, मनन से, चिन्तन से शौर्य का विकास होता है, पुरुषार्थ सहज जागृत होता है। पुरुषार्थ की जागृति में बन्धन कहाँ?
- तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ ७०