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एकत्वभावना : एक अनुशीलन
आचार्य श्री पूज्यपाद एकत्वानुप्रेक्षा का प्रयोजन और फल बताते हुए लिखते हैं -
"एवं ह्यस्य भावयतः स्वजनेषु प्रीत्यनुबन्धो न भवति परजनेषु च द्वेषानुबन्धो नोपजायते। ततो निसङ्गतामभ्युपगतो मोक्षायैव घटते।' ___ इसप्रकार चिन्तवन करते हुए इस जीव के स्वजनों में प्रीति का अनुबन्ध नहीं होता और परजनों में द्वेष का अनुबन्ध नहीं होता; इसलिए नि:संगता को प्राप्त होकर मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करता है।" ___ यद्यपि वस्तुस्थिति यही है कि कोई साथ दे नहीं सकता; तथापि अब जरा इस बात पर भी विचार कर लीजिए कि जीवन-मरण और सुख-दुःख में यदि आपके परिजन साथ दे भी सकते होते और देने को तैयार भी होते तो क्या आप यह चाहते कि आपके मरने के साथ ही आपका सभी कुनबा समाप्त हो जावे या आपके बीमार होते सभी बीमार हो जावें।
नहीं, कदापि नहीं; तो फिर 'कोई साथ नहीं देता' का क्या अर्थ रह जाता है?
इसीप्रकार क्या आप चाहते हैं कि आपके जन्म के साथ ही आपके परिवारवालों और इष्ट मित्रों का जन्म भी होता? यदि ऐसा होता तो फिर आपका बेटा बेटा नहीं होता, आपका जुड़वाँ भाई होता।
यह बात तो आपको भी स्वीकृत नहीं होगी। यदि हाँ, तो फिर व्यर्थ की शिकायत क्यों? सनातन सत्य की सहज स्वीकृति क्यों नहीं?
एकत्व ही सनातन सत्य है, साथ की कल्पना मात्र कल्पना ही है। एकत्व ही शिव है, कल्याणकारी है। साथ ही कल्पना अशिव है, दुःख का मूल है। एकत्व ही सुन्दर है, साथ की कल्पना मात्र कल्पनारम्य ही है।
एकत्व ही सत्य है, शिव है, सुन्दर है। साथ है ही नहीं; अतः उसके कुछ होने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। साथ न सत्य है, न असत्य है; न शिव
१. सर्वार्थसिद्धि : अध्याय ९, सूत्र ७ की टीका