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एकत्वभावना : एक अनुशीलन
एकत्व ही शिव सत्य है सौन्दर्य है एकत्व में । स्वाधीनता सुख-शान्ति का आवास है एकत्व में ॥ एकत्व को पहिचानना ही भावना का सार है । एकत्व की आराधना आराधना का सार है ॥
अनित्य, अशरण व संसारभावना के चिन्तन में संयोगों की क्षणभंगुरता, अशरणता व निरर्थकता तथा निजस्वभाव की नित्यता, शरणभूतता एवं सार्थकता अत्यन्त स्पष्ट हो जाने पर भी ज्ञानी - अज्ञानी सभी को अपनी-अपनी भूमिकानुसार सुख-दुःख मिलजुलकर भोग लेने का विकल्प थोड़ा-बहुत बना ही रहता है, जड़मूल से साफ नहीं होता ।
उक्त विकल्प को जड़ - मूल से उखाड़ फेंकने के लिए ही एकत्व और अन्यत्वभावना का चिन्तन किया जाता है ।
एकत्व और अन्यत्वभावना में अस्ति नास्ति का ही अन्तर है । जिस बात का एकत्वभावना में अस्तिपरक (Positive) चिन्तन किया जाता है; उसी बात का अन्यत्वभावना में नास्तिपरक (Negative) चिन्तन होता है ।
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वृहद्रव्यसंग्रह की ३५वीं गाथा की टीका में इन दोनों भावनाओं का अन्तर स्पष्ट करते हुए लिखा है
“एकत्वानुप्रेक्षायामेकोऽहमित्यादिविधिरूपेण व्याख्यानं, अन्यत्वानुप्रेक्षायां तु देहादयो मत्सकाशादन्ये, मदीया न भवन्तीति निषेधरूपेण । इत्येकत्वान्यत्वानुप्रेक्षायां विधिनिषेधरूप एव विशेषस्तात्पर्यं तदेव ।