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बारहभावना : एक अनुशीलन
बेटा पहली बार बम्बई जा रहा था। उसे गाड़ी में बिठाकर पिताजी जब घर वापिस आये तो माँ ने पूछा - .
"क्यों, उदास क्यों हो? बेटे को बैठने को जगह तो मिल गई थी न?"
"हाँ, मिल तो गई थी; पर भीड़ बहुत थी, पैर रखने को भी जगह न थी। चिन्ता जगह की नहीं, इस बात की है कि बेटा पहली बार बम्बई जा रहा है
और वह भी अकेला।" __ "अकेला क्यों; आप ही तो बता रहे हैं कि गाड़ी में पैर रखने की भी जगह न थी?"
"भीड़ तो बहुत थी, पर साथी कोई नहीं।" भीड़ तो मात्र संयोग की सूचक है, साथ की नहीं। जब संयोग में सहयोग, अपनापन जुड़ जाता है तो साथ बन जाता है। किन्तु जब कोई अपना है ही नहीं, कोई किसी का सहयोग कर ही नहीं सकता है; तब साथ की बात ही कहाँ रह जाती है?
जगत में संयोग हैं, पर साथ नहीं। संयोग से इन्कार करना भी भूल है और साथ मानना भी भूल है। यद्यपि संयोग क्षणभंगुर हैं, अशरण हैं, असार हैं; पर हैं अवश्य; किन्तु साथ तो है ही नहीं।
अनित्यभावना में संयोगों की अनित्यता, अशरणभावना में संयोगों की अशरणता, संसारभावना में संयोगों की असारता समझाई जाती है तो एकत्वभावना में संयोगों की स्वीकृति के साथ-साथ साथ से इन्कार किया जाता है। साथ से इन्कार का नाम ही अकेलेपन (एकत्व) की स्वीकृति है। एकत्वभावना का मूल प्रतिपाद्य यही अकेलापन (एकत्व) है।
चित्त में इस अकेलेपन की चिन्तनधारा का अविराम प्रवाह ही एकत्वभावना है। एकत्वभावना के चिन्तन-प्रवाह को देखने के लिए कविवर गिरधर का निम्नांकित छन्द उल्लेखनीय है -