________________
४०
अशरणभावना : एक अनुशीलन
उक्त कथन की पुष्टि में निम्नांकित छन्द प्रस्तुत किए जा सकते हैं -
"शुद्धातम अरु पंच गुरु, जग में सरनौ दोय।
मोह उदय जिय के वृथा, आन कल्पना होय॥ इस जगत में अपना शुद्धात्मा और पंचपरमेष्ठी - ये दो ही शरण हैं। फिर भी इस जीव के मोहोदय के कारण व्यर्थ अन्य कल्पनाएँ हुआ करती हैं।
शरण न जिय को जगत में, सुर-नर-खगपति सार। निश्चय शुद्धातम शरण, परमेष्ठी व्यवहार॥ जीव को जगत में न तो मनुष्य की शरण प्राप्त होती है, न देवताओं की और न विद्याधरों की। निश्चय से तो एकमात्र अपने शुद्धात्मा की ही शरण है और व्यवहार से पंचपरमेष्ठी भी शरणभूत कहे जाते हैं।" ___ यद्यपि स्थूलदृष्टि से देखने पर ऐसा भ्रम हो जाना असंभव नहीं है, तथापि गहराई से विचार करने पर यह अत्यन्त स्पष्ट प्रतीत होता है कि सभी संयोग और पर्यायें अशरण ही हैं; क्योंकि निश्चितक्रमानुसार स्वसमय में होनेवाले संयोगों के वियोग एवं पर्यायों के व्यय को रोकने में पंचपरमेष्ठी और शुद्धात्मा भी तो समर्थ नहीं है, शरण नहीं है; अतः संयोग और पर्यायें तो अशरण ही हैं। ___ यदि ऐसा है तो फिर जिनवाणी में निश्चय से शुद्धात्मा को और व्यवहार से पंचपरमेष्ठी या रत्नत्रयधर्म को शरण क्यों कहा है ?
इन्हें शरण कहनेका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि ये तुझे मरने से बचा लेंगे या संयोगों के वियोगों को रोक देंगे या पर्यायों के परिणमन को अवरुद्ध कर देंगे या जगत को तेरी इच्छानुसार परिणमित कर देंगे। __ वस्तु का परिणमन (संयोग-वियोगरूप) तो जब जैसा होना है, वैसा ही होगा; उसमें तो किसी भी प्रकार का कोई परिवर्तन किसी के भी द्वारा सम्भव नहीं है, न शुद्धात्मा के द्वारा और न पंचपरमेष्ठी द्वारा ही। हाँ, यह बात अवश्य है कि परिवर्तन करने के संकल्प-विकल्पों में उलझे आकुल-व्याकुल प्राणी
१. पण्डित जयचन्द्रजी छाबड़ा कृत बारह भावना, छन्द २ २. पण्डित दीपचन्दजी कृत बारह भावना, छन्द २