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अशरणभावना : एक अनुशीलन
अन्तर मात्र इतना है कि संयोगों और पर्यायों की अशरणता, दृष्टि को उन पर हटाने के लिए बताई जाती है और शुद्धात्मा को शरणभूत, दृष्टि को उस पर केन्द्रित करने की प्रेरणा देने के लिए बताया जाता है।
अशरणभावना में अकेली अशरणता की चर्चा अपना प्रयोजन सिद्ध करने में असमर्थ होने से अधूरी ही रहती; क्योंकि संयोगों और पर्यायों के अशरण बताये जाने पर दृष्टि को वहाँ से हटाने की प्रेरणा तो मिलती; परन्तु परमशरणभूत शुद्धात्मा के भान बिना, शुद्धात्मा को शरणभूत बताये बिना दृष्टि जमती कहाँ? यही कारण है कि दृष्टि के विषयभूत शुद्धात्मा को शरण बताना आवश्यक समझा गया।
निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि अशरणभावना में संयोगों और पर्यायों की अशरणता की चर्चा को पूर्णता प्रदान करनेवाली होने से शुद्धात्मा की चर्चा अनावश्यक नहीं, अपितु परमावश्यक है।
शुद्धात्मा और पंचपरमष्ठी के अतिरिक्त धर्म को भी शरण कहा जाता है। रत्नकरण्डश्रावकाचार वचनिका में पण्डित सदासुखदासजी लिखते हैं :
"इस संसार में एक सम्यग्ज्ञान शरण है, सम्यग्दर्शन शरण है, सम्यक्चारित्र शरण है और सम्यक्तप-संयम शरण है। इन चार आराधना बिना अनन्तानन्तकाल में कोई शरण नहीं है तथा उत्तमक्षमादिक दश धर्म प्रत्यक्ष इस लोक में समस्त क्लेश, दुःख, मरण, अपमान, हानि से रक्षा करनेवाले हैं।"
ज्ञान के घनपिण्ड, आनन्द के कन्द, परमशरणभूत निजपरमात्मतत्त्व से अपरिचित प्राणी प्राप्तपर्याय और संयोगों में ही तन्मय हैं । वे पर्यायों के परिवर्तन
और संयोगों के विघटन से निरन्तर आकुल-व्याकुल हो रहे हैं। व्याकुलता से बचने के लिए यद्यपि वे निरन्तर प्रयत्नशील रहे हैं - शरण खोजते रहे हैं; तथापि स्थिति वहीं की वहीं रही। रहना ही थी; क्योंकि स्वयं मरणशील अशरणस्वभावी पर्यायों और संयोगों को शरण कौन दे, कैसे दे, क्यों दे ?
१. रत्नकरण्डश्रावकाचार, पृष्ठ ४००