________________
५२
संसारभावना : एक अनुशीलन
सेपर के प्रति प्रीति उत्पन्न होती है; इसलिए परसंग के त्याग की भी सलाह
दी गई है।
इसप्रकार यह स्पष्ट है कि आत्मा में उत्पन्न होनेवाले मोह-राग-द्वेष के भाव ही संसार हैं । ये भाव परलक्ष्य से आत्मा में ही उत्पन्न होते हैं, आत्मा की ही विकारी पर्यायें हैं, आत्मा की ही दुःखरूप अवस्थाएँ हैं ।
1
आत्मा अनादि-अनन्त नित्य अविनाशी परमपदार्थ है और यह मोह -रागद्वेषरूप संसार क्षणभंगुर अनित्य है - इस दृष्टि से 'जीव संसार में है ' - यह कहने की अपेक्षा 'जीव में संसार है' यह कहना अधिक उपयुक्त है।
-
'जीव' द्रव्य है और 'संसार' पर्याय । द्रव्य में पर्यायें होती हैं, पर्यायों में द्रव्य नहीं । संसार जीवद्रव्य की विकारी पर्याय है; अतः यह कहना किसी भी प्रकार असंगत नहीं है कि जीव में ही संसार है, संसार में जीव नहीं । जब यह कहा जाता है कि जीव संसार में है तो उसका तात्पर्य भी यही होता है कि जीव इस समय मोह-राग-द्वेषरूप परिणमित हो रहा है, चतुर्गति - परिभ्रमण कर रहा है।
कुछ लोग संसार शब्द का अर्थ लोक समझते हैं। लोक में संसार शब्द का प्रयोग लोक (जगत, दुनियाँ) के अर्थ में होता भी है; पर संसार - भावना के सन्दर्भ में संसार का अर्थ लोक, दुनियाँ, जगत किसी भी स्थिति में सम्भव नहीं है; क्योंकि बारह भावनाओं में संसारभावना के समान लोक भी एक भावना है। लोक और संसार भिन्न-भिन्न भावनाएँ हैं । संसार तीसरी भावना है और लोक दशवीं ।
दोनों में बिन्दु और सिन्धु का अन्तर है। संसार बिन्दु है तो लोक सिन्धु । संसार जीव की विकारी पर्याय मात्र है और लोक छह द्रव्यों के समूह को कहते हैं। छह द्रव्यों में अनन्त जीव, अनन्तानन्त पुद्गल, असंख्य कालाणु, एक आकाश, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य - ये सभी अनन्तानन्त द्रव्य समाहित हो जाते हैं।