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बारह भावना : एक अनुशीलन
है; क्योंकि भूतकाल में हुए अगणित वीरों में से आज कोई भी तो दिखाई नहीं देता। यदि किसी को सशरीर अमरता प्राप्त हुई होती तो वे आज हमारे बीच अवश्य होते। कहा भी है -
कहाँ गये चक्री जिन जीता भरतखण्ड सारा, कहाँ गये वे राम रु लछमन जिन रावण मारा। कहाँ कृष्ण रुक्मणि सतभामा अरु संपति सगरी, कहाँ गये वे रंगमहल अरु सुवरन की नगरी ॥ नहीं रहे वे लोभी कौरव जूझ मरे रन में, गये राज तज पाण्डव वन को अग्नि लगी तन में । मोहनींद से उठ रे चेतन तुझे जगावन को, हो दयाल उपदेश करें गुरु बारह भावन को ॥
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जिनके वियोग की कल्पना में आप इतने आकुल-व्याकुल हो रहे हैं, सुखी होने के लिए जिन्हें आप अमर बनाना चाहते हैं; उन संयोगों और पर्यायों के अमर हो जाने पर आपको किन-किन समस्याओं का सामना करना होगा- कभी इसका भी विचार किया है आपने ?
नहीं; तो जरा कल्पना कीजिए कि आप स्वयं सशरीर अमर हो गये हैं । अब आपकी मृत्यु कभी भी नहीं होगी। आपके सामने ही आपके पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र आदि अनेक पीढ़ियाँ पैदा होंगी और काल-गाल में समाती जावेंगी और आपको अपनी आँखों से यह सब देखते रहना होगा। साथी संगी, मित्र आदि सभी चले जावेंगे, पत्नी भी। सब कुछ नया होगा, मात्र आप ही एक प्राचीनतम पुरातत्वीय चेतन सामग्री के रूप में उपलब्ध रहेंगे। चिड़ियाघर में न सही, किसी मन्दिर में ही सही; पर आपको अद्भुत अलभ्य दर्शनीय वस्तु बनकर रहना होगा । - ऐसा अमरता की आपने कल्पना भी न की होगी, पर आप ही बताइये कि इससे अतिरिक्त और क्या हो सकता है ?
१. कविवर मंगतरामजी कृत बारह भावना, छन्द १
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