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अशरणभावना : एक अनुशीलन
जिन्दगी इक पल कभी कोई बढ़ा नहीं पायगा । रस रसायन सुत सुभट कोई बचा नहीं पायगा ॥ सत्यार्थ है बस बात यह कुछ भी कहो व्यवहार में । जीवन-मरण अशरण शरण कोई नहीं संसार में ॥
"सभी प्रकार के संयोग और पर्यायें अध्रुव हैं, अनित्य हैं, क्षणभंगुर हैं; तथा द्रव्यस्वभाव ध्रुव है, नित्य है, चिरस्थाई है; अत: भला इसी में है कि हम इस शाश्वत सत्य को सहजभाव से स्वीकार कर लें तथा पर और पर्यायों से दृष्टि हटाकर स्वभावसन्मुख हों । "
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यद्यपि इसप्रकार के चिन्तन के माध्यम से अनित्यभावना में दृष्टि को पर और पर्यायों से हटाकर स्वभावसन्मुख होने के लिए भरपूर प्रेरणा दी जाती है; तथापि अज्ञानी को अज्ञानवश तथा कदाचित् ज्ञानी को भी रागवश संयोगों और पर्यायों को स्थिर करने की विकल्पतरंगें उठा ही करती हैं। उन निरर्थक विकल्पतरंगों के शमन के लिए ही अशरणभावना का चिन्तन किया जाता है।
अशरणभावना में अनेक युक्तियों और उदाहरणों के माध्यम से यह स्पष्ट किया जाता है कि यथासमय स्वयं विघटित होनेवाले संयोगों एवं पर्यायों की सुरक्षा सम्भव नहीं है, उनका विघटन अनिवार्य है; क्योंकि उनकी यह सहज परिणति ही है।
संयोगों और पर्यायों की सुरक्षा में किए गये अगणित प्रयत्नों में से आज तक किसी का एक भी प्रयत्न सफल नहीं हुआ है और न कभी भविष्य में भी सफल होगा; अतः इन निरर्थक प्रयासों में उलझना ठीक नहीं है ।
संयोगी पदार्थों में शरीर एक ऐसा संयोगी पदार्थ है, जिसकी सुरक्षा सम्बन्धी विकल्पतरंगें चित्त को सर्वाधिक आन्दोलित करती हैं। इस नश्वर देह