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बारहभावना : एक अनुशीलन
स्वभाव है, उन्हें रोकने का कोई उपाय नहीं है। कोई ऐसी दवा नहीं, मणिमन्त्र-तन्त्र नहीं; जो तुझे या तेरे पुत्रादि को मरने से बचा लें।
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तब यह सोच सकता है कि न सही ये संयोग, दूसरे संयोग तो मिलेंगे ही; तब इसे संसारभावना के माध्यम से समझाते हैं कि संयोगों में कहीं भी सुख नहीं है, सभी संयोग दुःखरूप ही हैं। तब यह सोच सकता है कि मिल-जुलकर सब भोग लेंगे, उसके उत्तर में एकत्वभावना में दृढ़ किया जाता है कि दुःख मिल-बाँटकर नहीं भोगे जा सकते, अकेले ही भोगने होंगे। इसी बात को नास्ति से अन्यत्वभावना में दृढ़ किया जाता है कि कोई साथ नहीं दे सकता । जब यह शरीर ही साथ नहीं देता तो स्त्री- पुत्रादि परिवार तो क्या साथ देंगे?
अशुचिभावना में कहते हैं कि जिस देह से तू राग करता है; वह देह अत्यन्त मलिन है, मल-मूत्र का घर है।
इसप्रकार आरम्भ की छह भावनाओं में संसार, शरीर और भोगों से वैराग्य उत्पन्न किया जाता है; जिससे यह आत्मा आत्महितकारी तत्त्वों को समझने के लिए तैयार होता है । इन भावनाओं में देहादि परपदार्थों से आत्मा की भिन्नता का ज्ञान कराके भेदविज्ञान की प्रथम सीढ़ी भी पार करा दी जाती है ।
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जब यह आत्मा शरीरादि परपदार्थों से विरक्त होकर गुण- पर्यायरूप निजद्रव्य की सीमा में आ जाता है, तब आस्रवभावना में आत्मा में उत्पन्न मिथ्यात्वादि कषायभावों का स्वरूप समझाते हैं। यह बताते हैं कि ये आस्रवभाव दुःखरूप हैं, दुःख के कारण हैं, मलिन हैं; और भगवान आत्मा सुखस्वरूप है, सुख का कारण है एवं अत्यन्त पवित्र है ।
इसप्रकार आस्रवों से भी दृष्टि हटाकर संवर- निर्जराभावना में अतीन्द्रिय आनन्दमय संवर - निर्जरा तत्त्वों का परिज्ञान कराते हैं, उन्हें प्राप्त करने की प्रेरणा देते हैं। फिर लोकभावना में लोक का स्वरूप बताकर बोधिदुर्लभभावना में यह बताते हैं कि इस लोक में एक रत्नत्रय ही दुर्लभ है; और सब संयोग तो अनन्तबार प्राप्त हुए, पर रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं हुई; यदि हुई होती तो संसार