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अनित्यभावना : एक अनुशीलन
उस दुःख के दूर होने का उपाय है। भ्रमजनित दुःख का उपाय भ्रम दूर करना ही है । सो भ्रम दूर होने से सम्यक् श्रद्धान होता है, वही सत्य उपाय जानना । "
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यहाँ एक प्रश्न संभव है कि अनित्यभावना का चिन्तन तो मुख्यरूप से सम्यग्दृष्टि ज्ञानियों को होता है, मुनिराजों के भी होता है; तो क्या वे भी संयोगों और पर्यायों की क्षणभंगुरता से अनजान होते हैं ?
नहीं; वे संयोगों और पर्यायों की क्षणभंगुरता से भली-भाँति परिचित होते हैं। अज्ञानजन्य आकुलता - व्याकुलता तो अज्ञानियों को ही होती है, सम्यग्दृष्टि ज्ञानियों को नहीं; किन्तु पूर्ण वीतरागता के अभाव में देव - शास्त्र - गुरु, शिष्य, माता-पिता, स्त्री- पुत्रादि व देहादि संयोगों तथा शुभराग, विशिष्ट क्षयोपशमज्ञानादि पर्यायों में रागात्मक विकल्प यथासम्भव भूमिकानुसार सम्यग्ज्ञानियों के भी पाये जाते हैं, इष्ट संयोगों के वियोग में उनका भी चित्त अस्थिर हो जाता है । चित्त की स्थिरता के लिए वे भी संयोगों व पर्यायों की क्षणभंगुरता का बार-बार विचार करते हैं, चिन्तन करते हैं । उनका यह चिन्तन आम्नायस्वाध्यायरूप ही समझना चाहिए।.
चारित्रमोह के तीव्र उदय में रामचन्द्रजी जैसे सम्यग्दृष्टि धीर-वीर महापुरुष का चित्त भी आकुल-व्याकुल हो उठा था । लक्ष्मण की मृत देह को भी छह माह तक ढोते रहना तथा सीता के वियोग में पशु-पक्षियों एवं वृक्ष-लताओं से भी समाचार पूछते फिरना क्या साधारण व्याकुलता का परिणाम हो सकता है ? फिर भी वह आकुलता अज्ञानजन्य नहीं थी, रागजन्य ही थी ।
अज्ञानजन्य व्याकुलता दूर करने के साथ-साथ राग-द्वेषजन्य व्याकुलता दूर करने के लिए भी संयोगों और पर्यायों की अस्थिरता - क्षणभंगुरता का चिन्तन निरन्तर आवश्यक है । यही कारण है कि अनित्यादि भावनाओं का चिन्तन ज्ञानी - अज्ञानी, संयमी असंयमियों सभी को उपयोगी है, आवश्यक
है, सुखकर है, शान्तिदायक है, परम अमृत है।
१.. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ ५२
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