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अनुप्रेक्षा : एक अनुशीलन
से पार हो गये होते। अन्त में धर्मभावना में यह बताते हैं कि अत्यन्त दुर्लभ रत्नत्रयरूप धर्म की आराधना ही इस मनुष्यभव का सार है। मनुष्यभव की सार्थकता एकमात्र त्रिकाली ध्रुव आत्मा के आश्रय से उत्पन्न सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रयधर्म का प्राप्ति में ही है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि बारह भावनाओं की यह चिन्तनप्रक्रिया अपने आप में अद्भुत है, आश्चर्यकारी है; क्योंकि इनमें संसार, शरीर और भोगों में लिप्त जगत को अनन्तसुखकारी मार्ग में प्रतिष्ठित करने का सम्यक् प्रयोग है, सफल प्रयोग है। यही कारण है कि बारह भावनाओं का चिन्तन आत्मार्थी समाज का सर्वाधिक प्रिय मानसिक दैनिक भोजन है।
यद्यपि इन बारह भावनाओं का चिन्तन ज्ञानी-अज्ञानी सभी के लिए समानरूप से हितकारी है, तथापि इनका सम्यक् स्वरूप न जान पाने के कारण अज्ञानीजन लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक उठाया करते हैं। पहले शरीरादि संयोगों को भला जानकर उनसे अनन्त अनुराग करते थे; पर जब बारह भावनाओं में निरूपित शरीरादि संयोगों की अनित्यता; अशरणता, असारता, अशुचिता आदि दोषों को जान लेते हैं तो उनसे द्वेष करने लगते हैं। बारह भावनाओं के चिन्तन का सच्चा फल तो वीतरागता है, उसकी प्राप्ति उन्हें नहीं हो पाती है।
इस सन्दर्भ में आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी का निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है -
"अनित्यादि चिंतवन से शरीरादि को बुरा जान, हितकारी न जान कर उनसे उदास होना; उसका नाम अनुप्रेक्षा (अज्ञानी) कहता है । सो यह तो जैसे कोई मित्र था, तब उससे राग था और पश्चात् उसके अवगुण देखकर उदासीन हुआ। उसीप्रकार शरीरादिक से राग था, पश्चात् अनित्यादि अवगुण अवलोक कर उदासीन हुआ, परन्तु ऐसी उदासीनता तो द्वेषरूप है।