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बारहभावना : एक अनुशीलन
का विषय प्रायः पंचेन्द्रिय के विषय ही रहते हैं; कषायचक्र ही उनकी चिन्तनधारा का नियामक होता है।
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विषय-कषाय की पूर्ति के लक्ष्य से किया गया चिन्तन अनुप्रेक्षा नहीं, चिन्ता है; जो चिता से भी अधिक दाहक होती है । कहा भी है
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" चिन्ता चेतन को दहे, चिता दहे निर्जीव । "
आवश्यकता चिन्तन और ध्यान के प्रशिक्षण की नहीं, अपितु सम्यक् दिशानिर्देश की है; क्योंकि चिन्तन और ध्यान तो संज्ञी प्राणी के सहज स्वभाव हैं । चिन्तन की धारा और ध्यान का ध्येय यदि सम्यक् न हो, स्पष्ट न हो तो चिन्तन और ध्यान भवतापनाशक न होकर भव-भव भटकाने के हेतु भी बन सकते हैं; अतः चिन्तन की धारा का नियमन आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है ।
चिन्तन की धारा का सम्यक् नियमन ही बारह भावनाओं का मूल प्रतिपाद्य है। संयोगों की क्षणभंगुरता, विकारों की विपरीतता, स्वभाव की सामर्थ्य एवं स्वभाव के आश्रय से उत्पन्न पर्यायों की सुखकरता और दुर्लभता ही बारह भावनाओं के प्रतिपादन का मूल केन्द्रबिन्दु है; क्योंकि इसप्रकार का चिन्तन ही वैराग्योत्पादक एवं तत्त्वपरक होने से सम्यक् दिशाबोध दे सकता है।
इस दृष्टि से यदि हम बारह भावनाओं के अत्यधिक प्रचलित एवं कुछ अपवादों को छोड़कर सर्वमान्य क्रम का अध्ययन करें तो सहज ही पायेंगे कि उनमें आरम्भ की छह भावनाएँ वैराग्योत्पादक और अन्त की छह भावनाएँ तत्त्वपरक हैं; प्रत्येक के क्रम में भी एक सहज विकास दृष्टिगोचर होता है ।
इस बात को विस्तार से समझने के लिए बारह भावनाओं के क्रमिक नाम जानने के साथ-साथ उनके स्वरूप का सामान्य परिज्ञान भी आवश्यक है; अतः विश्लेषणात्मक अध्ययन के पूर्व उनका सामान्य कथन अपेक्षित है।
बारह भावनाओं के क्रमानुसार नाम इसप्रकार हैं -
१. अनित्य २. अशरण ३. संसार ४. एकत्व ५. अन्यत्व ६. अशुचि ७. आस्रव ८. संवर ९. निर्जरा १०. लोक ११. बोधिदुर्लभ १२. धर्म ।