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अनुप्रेक्षा : एक अनुशीलन
पद्यमय बारहभावनाओं का गाना, गुनगुनाना हमारी धर्मशील माता-बहिनों की दिनचर्या का मुख्य अंग है। आध्यात्मिक-धार्मिक जनों का यह सर्वाधिक प्रिय मानसिक भोजन है।
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जिन बारह भावनाओं को स्वामी कार्तिकेय भवियजणाणंद जणणीयो अर्थात् भव्यजीवों के आनन्द की जननी कहते हों तथा सर्वश्रेष्ठ आचार्य कुन्दकुन्द जिन्हें मुक्ति का साक्षात् कारण निरूपित करते हों; उन बारह भावनाओं का जन-जन की वस्तु बन जाना सहज ही है, स्वाभाविक ही है। बारह भावनाओं का माहात्म्य व्यक्त करनेवाला आचार्य कुन्दकुन्द का कथन इसप्रकार है -
" किं पलवियेण बहुणा जे सिद्धा णरवरा गये काले । सिन्झिहहि जे वि भविया तज्जाणह तस्स माहप्पं ॥
इस विषय में अधिक प्रलाप करने से क्या लाभ है, बस इतना समझना कि भूतकाल में जितने श्रेष्ठ पुरुष सिद्ध हुए हैं और भविष्य में भी जो भव्यजीव सिद्ध होंगे - यह सब इन बारह भावनाओं का ही माहात्म्य है । "
आचार्य पद्मनन्दि भी इन्हें कर्मक्षय का कारण बताते हैं -
" द्वादशापि सदा चिन्त्या अनुप्रेक्षा महात्मभिः । तद्भावना भवत्येव कर्मणां क्षयकारणम् ॥
महान पुरुषों को बारह भावनाओं का सदा ही चिन्तवन करना चाहिए; क्योंकि उनकी भावना कर्मों के क्षय का कारण होती ही है।"
बारह भावनाओं के चिन्तन के लाभ गिनाते हुए शुभचन्द्राचार्य लिखते हैं -
१. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा १
२. वारस अणुवेक्खा, गाथा ९०
३. पद्मनंदि पंचविंशतिका, उपासकसंस्कार अधिकार, छन्द ४२