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देवागम
पड़ती हैं-सामान्य अर्थकी दृष्टिसे कोई खास कठिनाई मालूम नहीं पड़ती; परन्तु विशेषार्थ और फलितार्थकी दृष्टिमे जब विचार किया जाता है तो बहुत कुछ गहन-गम्भीर तथा अर्थगौरवको लिए हुए जान पड़ती हैं । सभी कारिकाएँ प्रायः सूत्ररूपमें हैं । अनेक कारिकाओंमें तो कितने ही सूत्र एकसाथ निबद्ध हो रहे हैं । सूत्रशैली प्रायः अतिसंक्षिप्तरूपसे कथनको शैली है और इसलिए सूत्रों अथवा सूत्ररूप कारिकाओंका अर्थ स्पष्ट करनेके लिए कितनी ही बातोंका ऊपरसे लेना-लगाना होता है, जिनसे यह मालूम हो सके कि सूत्रकारके सामने क्या परिस्थिति थी, कोई मत-विशेष अथवा प्रश्न-विशेष उपस्थित था, जिसे लेकर इसका अवतार हुआ है । श्री अकलंकदेवने अपने अष्टशती ( आठसौ श्लोकोंके परिमाण जितने )-भाष्यमें देवागमकी अर्थदृष्टिको सूत्ररूपमें ही खोला है । परन्तु विषयकी दृष्टि से वे सूत्र इतने कठिन और दुर्गम हो गये हैं कि साधारण विद्वान्की तो बात ही क्या, अच्छे विद्वान् भी उसे सहजमें नहीं लगा सकते हैं । उक्त अष्टशतो-भाष्यको अपनाकर श्रीविद्यानन्दाचार्यने देवागमपर जो अष्टसहस्री ( आठ-हजार श्लोक परिमाण ) नामकी अलङ्कृति लिखी है उससे अष्टशतीका सूत्रार्थ स्पष्ट अवभासित होता है और उसकी गम्भीरता एवं जटिलताका पता चल जाता है । यह अष्टसहस्री-टीका भी विषयकी दृष्टिसे कठिन शब्दोंकी भरमारको लिए हुए है और इसलिए एक विद्वान् यशोविजय ( श्वेताम्बराचार्य ) को इसपर टिप्पण लिखना पड़ा है, जिसका परिमाण भी आठ हजार श्लोक जितना हो गया है । इससे मूलग्नन्थ कितना अधिक गहन, गम्भीर तथा अर्थगौरवको लिए हुए है, यह और भी स्पष्ट हो जाता है।
अष्टसहस्रीको स्वयं विद्यानन्दाचार्यने 'कष्टसहस्री' लिखा है अर्थात् उसका निर्माणकार्य सहस्रों कष्ट झेलकर हुआ है और यह बात उन विज्ञ पाठकोंसे छिपी नहीं, जो एसे खोजपूर्ण महत्त्वके ग्रन्थोंका निर्माणकार्य करते हैं उन्हें पद-पदपर उस कष्टका अवभासन होता है-साधारण विज्ञ पाठकोंके वशकी वह बात नहीं। ठीक है, प्रसव में जो भारी वेदना होती है उसे बाँझ क्या जाने ? भाचार्य महोदयने एक बात इस अष्ट
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